8 दिसंबर 2010

२. साल आया है नया


फटे मोजे,
पाँव की उँगली दिखाई दे रही
साल आया है नया
दुनिया बधाई दे रही!

रोटियाँ ठंडे तवे पर
आग पानी-सी लगे
ज़िंदगी कब तक बताओ
मेहरबानी-सी लगे
बीतकर भी एक बीती धुन
सुनाई दे रही!

दूध-सा फटना दिलों का
साल-भर जारी रहा
हर नशा उतरा चढ़े बिन
सिर मगर भारी रहा
ज़िंदगी फिर बंद घड़ियों को
कलाई दे रही!

आपसी रिश्ते रहे
काई लगी दीवार-से
रह गए हम भुरभुरे
संकल्प की मुट्ठी कसे
उम्र पतली ऊन को
मोटी सलाई दे रही!

लगे उड़ने बहुत सारे सच
हवा में चील से
कई अफ़साने बिना जाने
दिखे अश्लील से
सुबह भी अब
सुबह होने की सफ़ाई दे रही!

मंज़िलों के नाम
उलझे रास्ते ही रह गए
बहुत नन्हे मोड़ भी
बस खाँसते ही रह गए
माँ की खाली पेट
बच्चों को दवाई दे रही!

डबडबाई आँख
हर तारीख को पढ़ती रही
बदचलन-सी सांस
अपनी सांस से लड़ती रही
रात, दिन को देह की,
सारी कमाई दे रही!

--यश मालवीय
इलाहाबाद

8 टिप्‍पणियां:

  1. दूध सा दिल का फ़टना ज़ारी रहा।
    अच्छी कविता , मुबारकबाद।

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  2. विमल कुमार हेड़ा।9 दिसंबर 2010 को 7:55 am बजे

    दूध-सा फटना दिलों का
    साल-भर जारी रहा
    हर नशा उतरा चढ़े बिन
    सिर मगर भारी रहा
    ज़िंदगी फिर बंद घड़ियों को
    कलाई दे रही!
    एक अच्छे नवगीत के लिये, यश जी को बहुत बहुत बधाई, धन्यवाद।

    विमल कुमार हेड़ा।

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  3. टीम अनुभूति को बहुत बहुत बधाई ऐसे सुंदर नव-गीत से परिचय कराने के लिए|

    यश मालवीय जी आप की इस प्रस्तुति में 'लय' ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया| बधाई|

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  4. दूध-सा फटना दिलों का
    साल-भर जारी रहा
    हर नशा उतरा चढ़े बिन
    सिर मगर भारी रहा
    ज़िंदगी फिर बंद घड़ियों को
    कलाई दे रही!
    आपसी रिश्ते रहे
    काई लगी दीवार-से
    रह गए हम भुरभुरे
    संकल्प की मुट्ठी कसे
    उम्र पतली ऊन को
    मोटी सलाई दे रही!....बहुत सुन्दर! बधाई !

    जवाब देंहटाएं
  5. सुंदर बिंबों से सजे हुए शानदार नवगीत के लिए बधाई।

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  6. यश जी!
    नए साल के इस मधुर गीत हेतु हार्दिक बधाई. अछूते बिम्ब आपका वैशिष्ट्य हैं.

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  7. मंज़िलों के नाम
    उलझे रास्ते ही रह गए
    बहुत नन्हे मोड़ भी
    बस खाँसते ही रह गए
    माँ की खाली पेट
    बच्चों को दवाई दे रही!
    ati sunder
    badhai
    saader
    rachana

    जवाब देंहटाएं
  8. मंज़िलों के नाम
    उलझे रास्ते ही रह गए
    बहुत नन्हे मोड़ भी
    बस खाँसते ही रह गए
    माँ की खाली पेट
    बच्चों को दवाई दे रही!

    डबडबाई आँख
    हर तारीख को पढ़ती रही
    बदचलन-सी सांस
    अपनी सांस से लड़ती रही
    रात, दिन को देह की,
    सारी कमाई दे रही!

    बहुत बहुत बधाई सुंदर रचना के लिए

    जवाब देंहटाएं

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