वर्ष!
हर्ष, उत्कर्ष
नव जीवन दो।
घुटन भरी
सांसों को
स्पन्दन दो।
बीत गईं यूँ ही
कितनी सदियाँ
विषभार वहन
करती हैं नदियाँ,
दूर दूर तक
यह मौन उदासी
इस पानी की
हर मछली प्यासी।
अब नूतन रस
पावन
सावन दो।
चिपके-चिपके
अंधियारे छूटें
विकल विषमता के
बंधन टूटें,
गीत नया
परिभाषित हो निखरे
छन्दों के घर
इन्द्र धनुष उतरे।
इतिहास
नया हो
संवेदन दो।
--निर्मला जोशी
बहुत ही भाव पूर्ण कविता , आभार व बधाई।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना के लिए बधाई निर्मला जी
जवाब देंहटाएंवाह...वाह...!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया!
अभी दिसम्बर आधा भी नही बीता और नये साल की धूम मच गई!
निर्मला जी!
जवाब देंहटाएंआपका भाषा सौष्ठव मन को मोहता है. अच्छी रचना हेतु बधाई.
बहन निर्मला जी अभिनंदन| आपके गीत का दूसरा हिस्सा ज़्यादा रुचिकर लगा| आपके द्वारा प्रयुक्त भाषा शिल्प पूरे गीत की विशेषता है| सहज अभिव्यक्ति ने मन मोहा है| बहुत बहुत बधाई|
जवाब देंहटाएंचिपके-चिपके
जवाब देंहटाएंअंधियारे छूटें
विकल विषमता के
बंधन टूटें,
गीत नया
परिभाषित हो निखरे
छन्दों के घर
इन्द्र धनुष उतरे।
इतिहास
नया हो
संवेदन दो।
sunder
badhai
rachana
शानदार नवगीत के लिए बधाई। बीत गईं यूँ ही
जवाब देंहटाएंकितनी सदियाँ
विषभार वहन
करती हैं नदियाँ,
दूर दूर तक
यह मौन उदासी
इस पानी की
हर मछली प्यासी।
अब नूतन रस
पावन
सावन दो।