थके उनींदे शिथिल कंधों पर
ओढ़ ओढ़ नई शाल
फुदक फुदक कर चिड़िया जैसा
फिर आया नव साल
सागर और मगरमच्छों ने
फिर से किये करार
छोटी मछली से फिर छीने
जीने के अधिकार
बूढ़े कृश मेंढक कछूओं को
देंगे देश निकाल
आशाओं के सपने बोये
छल के बखर चले
जहाँ फूल पैदा होना थे
बस काँटे निकले
रहे बेशरम खड़े पहरुये
हुआ न कोई मलाल
तृष्णा आशा मोह भरे हैं
आँगन मन मंदिर
करुणा दया प्रेम से खाली
ठगे ठगे से घर
संवेदन भी खंड खंड हैं
हृदय हुये कंगाल
-- प्रभु दयाल
naye saal ki behad sundar rachna.....
जवाब देंहटाएंसंवेदन भी खंड खंड है, ह्रिदय हुए कंगाल ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी अभिव्यक्ति।
बहुत दिनों बाद इतनी श्रेष्ठ नवगीत पढने को मिला। कछूओं में छु छोटा कर लें। बहुत ही अच्छे बिम्बों का प्रयोग किया है।
जवाब देंहटाएंवाह... वाह... उत्तम नवगीत.
जवाब देंहटाएंसमर्पित एक बंद.
वास्तव में श्री गँवा रहे
कर श्री से अंधा मोह.
भुला रहे क्यों
मिलन पर्व का
होता मूल विछोह?
आशा पर आकाश टंगा है
होंगे प्रभु दयाल...
तृष्णा आशा मोह भरे हैं
जवाब देंहटाएंआँगन मन मंदिर
करुणा दया प्रेम से खाली
ठगे ठगे से घर
संवेदन भी खंड खंड हैं
हृदय हुये कंगाल
bahut khoob likha hai
saader
rachana
बूढ़े कृश मेंढक कछूओं को
जवाब देंहटाएंदेंगे देश निकाल
आशाओं के सपने बोये
छल के बखर चले
जहाँ फूल पैदा होना थे
बस काँटे निकले
रहे बेशरम खड़े पहरुये
हुआ न कोई मलाल
अति सुंदर....नवगीत..
वाह...वाह...
आभार और
बधाई आपको....
शुभ कामनाएँ...
गीता पंडित
अभिव्यक्ति बहुत ही अच्छी है बधाई आपको प्रभुदयाल जी....
जवाब देंहटाएंअति सुंदर रचना,बिंम्बों का मनभावन प्रयोग|
जवाब देंहटाएंगोवर्धन यादव