23 दिसंबर 2010

१०. फिर आया नव साल‌

थके उनींदे शिथिल कंधों पर‌
ओढ़ ओढ़ नई शाल‌
फुदक फुदक कर चिड़िया जैसा
फिर आया नव साल

सागर और मगरमच्छों ने
फिर से किये करार‌
छोटी मछली से फिर छीने
जीने के अधिकार‌
बूढ़े कृश मेंढक कछूओं को
देंगे देश निकाल

आशाओं के सपने बोये
छल के बखर चले
जहाँ फूल पैदा होना थे
बस काँटे निकले
रहे बेशरम खड़े पहरुये
हुआ न कोई मलाल


तृष्णा आशा मोह भरे हैं
आँगन मन मंदिर‌
करुणा दया प्रेम से खाली
ठगे ठगे से घर‌
संवेदन भी खंड खंड हैं
हृदय हुये कंगाल

-- प्रभु दयाल

8 टिप्‍पणियां:

  1. संवेदन भी खंड खंड है, ह्रिदय हुए कंगाल ।
    बहुत ही अच्छी अभिव्यक्ति।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत दिनों बाद इतनी श्रेष्‍ठ नवगीत पढने को मिला। कछूओं में छु छोटा कर लें। बहुत ही अच्‍छे बिम्‍बों का प्रयोग किया है।

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह... वाह... उत्तम नवगीत.
    समर्पित एक बंद.

    वास्तव में श्री गँवा रहे
    कर श्री से अंधा मोह.
    भुला रहे क्यों
    मिलन पर्व का
    होता मूल विछोह?
    आशा पर आकाश टंगा है
    होंगे प्रभु दयाल...

    जवाब देंहटाएं
  4. तृष्णा आशा मोह भरे हैं
    आँगन मन मंदिर‌
    करुणा दया प्रेम से खाली
    ठगे ठगे से घर‌
    संवेदन भी खंड खंड हैं
    हृदय हुये कंगाल
    bahut khoob likha hai
    saader
    rachana

    जवाब देंहटाएं
  5. बूढ़े कृश मेंढक कछूओं को
    देंगे देश निकाल

    आशाओं के सपने बोये
    छल के बखर चले
    जहाँ फूल पैदा होना थे
    बस काँटे निकले
    रहे बेशरम खड़े पहरुये
    हुआ न कोई मलाल



    अति सुंदर....नवगीत..

    वाह...वाह...

    आभार और
    बधाई आपको....


    शुभ कामनाएँ...
    गीता पंडित

    जवाब देंहटाएं
  6. अभिव्यक्ति बहुत ही अच्छी है बधाई आपको प्रभुदयाल जी....

    जवाब देंहटाएं
  7. अति सुंदर रचना,बिंम्बों का मनभावन प्रयोग|
    गोवर्धन यादव‌

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणियों का हार्दिक स्वागत है। कृपया देवनागरी लिपि का ही प्रयोग करें।