कहीं है जमूरा,
कहीं है मदारी.
नचते-नचाते
मनुज ही सड़क पर...
*
जो पिंजरे में कैदी
वो किस्मत बताता.
नसीबों के मारे को
सपना दिखाता.
जो बनता है दाता
वही है भिखारी.
लुटते-लुटाते
मनुज ही सड़क पर...
*
साँसों की भट्टी में
आसों का ईंधन.
प्यासों की रसों को
खींचे तन-इंजन.
न मंजिल, न रहें,
न चाहें, न वाहें.
खटते-खटाते
मनुज ही सड़क पर...
*
चूल्हा न दाना,
मुखारी न खाना.
दर्दों की पूंजी,
दुखों का बयाना.
सड़क आबो-दाना,
सड़क मालखाना.
सपने-सजाते
मनुज ही सड़क पर...
*
कुटी की चिरौरी
महल कर रहे हैं.
उगाते हैं वे
ये फसल चर रहे हैं.
वे बे-घर, ये बा-घर,
ये मालिक वो चाकर.
ठगते-ठगाते
मनुज ही सड़क पर...
*
जो पंडा, वो झंडा.
जो बाकी वो डंडा.
हुई प्याज मंहगी
औ' सस्ता है अंडा.
नहीं खौलता खून
पानी है ठंडा.
पिटते-पिटाते
मनुज ही सड़क पर...
--संजीव सलिल
बहुत खूब!सत्य कहा सलिल जी!
जवाब देंहटाएंवह बेचारा,
परालब्ध का मारा!!
"मनुज ही सड़क पर"
सलिल साहब,
जवाब देंहटाएंबहुत ही सटीक रचना है... भाव एवं अर्थ से परिपूर्ण... सामयिक भी है और शब्द चुनाव अत्यन्त अनुभवी-व्यवहारिक हैं...
वाह वाह वाह, क्या बात है। शानदार नवगीत के लिए आचार्य जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंलुटते-लुटाते
जवाब देंहटाएंमनुज ही सड़क पर...
सही कहा है सलिल जी| नमन|
कुटी की चिरौरी
जवाब देंहटाएंमहल कर रहे हैं.
उगाते हैं वे
ये फसल चर रहे हैं.
वे बे-घर, ये बा-घर,
ये मालिक वो चाकर.
ठगते-ठगाते
bahut sunder
badhai
saader
rachana
गुणग्राहकता हेतु धन्यवाद...
जवाब देंहटाएंसमर्पित कुछ पंक्तियाँ...
सज्जन सड़क पर,
हैं नीरज सड़क पर
मिली शारदा जी
सड़क पर भटककर
सड़क जाम ना हो
ये बदनाम ना हो
आगे को बढ़िये
न रहिये अटककर