सड़क के दोनो किनारे
कोई झंडा गाड़ बैठा
किस तरह बीमार बैठा
चुप रहेंग बंशियाँ भी
बोलने वालों के आगे
रंग मटमैले लगेंगे
चल रहे मौसम अभागे
गंध भी टहलेगी लेकिन
है प्रतीक्षित खार बैठा
यह सदी भी खास होगी
है नहीं आसार इसका
आदमी जो गुम हुआ है
मूल्य उसका भार इसका
मापनों परिमापनों का
दिन बहुत कुछ हार बैठा
जिंदगी नंगी अकेली
चल पड़ी है बस्तियों में
मुट्ठियाँ भींचे चलीं
सैलानियों की कश्तियों में
रात को बेआबरू कर
एक पहरेदार बैठा
--अश्विनी कुमार आलोक
बहुत ही खुबसुरत रचना........बधाई।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना, बधाई
जवाब देंहटाएंवाह ... बहुत सुन्दर मन को भावुक कर दिया आभार / शुभ कामनाएं
जवाब देंहटाएंअश्विनी जी काफ़ी भाव प्रवण है ये नवगीत
जवाब देंहटाएंआदमी जो गुम हुआ है
मूल्य उसका भार इसका
मापनों परिमापनों का
दिन बहुत कुछ हार बैठा
बधाई स्वीकार करें
वाह...वाह...
जवाब देंहटाएंसड़क के दोनो किनारे
कोई झंडा गाड़ बैठा
किस तरह बीमार बैठा
अच्छी प्रस्तुति...
नवगीत की पाठशाला मे आपने नवगीत विमर्श भी जोड दिया है यह अच्छा काम है। नवगीतकारो के अतिरिक्त और जो विद्यार्थी जुडेंगे उनके लिए भी आपकी यह सामग्री काम आयेगी। गीत/नवगीत की समीक्षा से जुडे लोगो के काम मे भी निखार आयेगा।
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