ये कैसी आपाधापी है
ये कैसा क्रंदन
दूर खड़े चुप रहे देखते
हम पलाश के वन
तीन पात से बढ़े न आगे
कितने युग बीते
अभिशापित हैं जनम-जनम से
हाथ रहे रीते
सहते रहे ताप, वर्षा
पर नहीं किया क्रंदन
हम पलाश के वन
जो आया उसने धमकाया
हम शोषित ठहरे
राजमहल के द्वार, कंगूरे
सब निकले बहरे
करती रहीं पीढ़ियाँ फिर भी
झुक-झुक अभिनंदन
हम पलाश के वन
धारा के प्रतिकूल चले हम
जिद्दीपन पाया
ऋतु वसंत में नहीं
ताप में पुलक उठी काया
चमक दमक से दूर
हमारी बस्ती है निर्जन
हम पलाश के वन
-डा० जगदीश व्योम
बहुत सुंदर नवगीत है व्योम जी का। हार्दिक बधाई उन्हें इस नवगीत के लिए।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद धर्मेन्द्र कुमार जी
हटाएंअभिशापित पलाश की व्यथा-
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूबसूरत रचना है व्योम जी.
आभार
हटाएंढाक के तीन पात मुहावरे का बहुत सटीक प्रयोग किया गया है इस नवगीत में। सर्वहारा वर्ग भी जीवन भर मेहनत करने के बाद वैसा का वैसा ही रहता है यानी ढाक के तीन पात...... बहुत सुन्दर नवगीत के लिये डा० व्योम जी को वधाई।
जवाब देंहटाएंडा० एम०पी० सिंह
आपका हार्दिक आभार
हटाएंजो आया उसने धमकाया
जवाब देंहटाएंहम शोषित ठहरे
बहुत मारक बात कही है इस नवगीत में, लय, तुक सब कुछ गज़ब का माकूल है।
आपने नवगीत की आत्मा को समझा और टिप्पणी लिखी, इसके लिए आभार
हटाएंतीन पात से बढ़े न आगे
जवाब देंहटाएंकितने युग बीते
अभिशापित हैं जनम-जनम से
हाथ रहे रीते
ढाक के तीन पात मुहावरे का बहुत सटीक प्रयोग किया गया है इस नवगीत में। सर्वहारा वर्ग भी जीवन भर मेहनत करने के बाद वैसा का वैसा ही रहता है यानी ढाक के तीन पात...... बहुत सुन्दर नवगीत के लिये डा० व्योम जी को वधाई।
नवगीत की पाठशाला पर बहुत अच्छे नवगीत आजकल पढने को मिल रहे हैं। डा० व्योम का नवगीत बहुत समय के बाद दिखाई दे रहा है, लय, तुक, भाव कथ्य सब दुरुस्त है, पलाश जैसे अभीशापित झाड़ पर इतना सुन्दर नवगीत लिखने के लिये व्योम जी को बहुत बहुत वधाई।
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंधारा के प्रतिकूल चले हम
जवाब देंहटाएंजिद्दीपन पाया
ऋतु वसंत में नहीं
ताप में पुलक उठी काया
चमक दमक से दूर
हमारी बस्ती है निर्जन
हम पलाश के वन
बहुत खूब. सशक्त नवगीत हेतु बधाई.
जो आया उसने धमकाया
जवाब देंहटाएंहम शोषित ठहरे
राजमहल के द्वार, कंगूरे
सब निकले बहरे
करती रहीं पीढ़ियाँ फिर भी
झुक-झुक अभिनंदन
हम पलाश के वन
बहुत सुन्दर नवगीत
saader
rachana
चमक दमक से दूर
जवाब देंहटाएंहमारी बस्ती है निर्जन
बहुत सुन्दर बात कही है आम आदमी के देनिक जीवन और रहन सहन के बावत। मन में बस गया ये नवगीत।
चमक दमक से दूर
जवाब देंहटाएंहमारी बस्ती है निर्जन
बहुत सुन्दर बात कही है आम आदमी के देनिक जीवन और रहन सहन के बावत। मन में बस गया ये नवगीत।
--गुलशन
अत्यन्त सुन्दर और प्रवाहमयी नवगीत के लिये बधाई। इंटरनेट पर नवगीत को लोकप्रिय बनाने की बहुत अच्छी कोशिश के लिये पाठशाला के आयोजकों का बहुत आभार।
जवाब देंहटाएंvrey good NAVGEET
जवाब देंहटाएंतीन पात से बढ़े न आगे
जवाब देंहटाएंकितने युग बीते
अभिशापित हैं जनम-जनम से
हाथ रहे रीते
सहते रहे ताप, वर्षा
पर नहीं किया क्रंदन
हम पलाश के वन,
बहुत सुन्दर नवगीत ...
गेयता तो देखते ही बनती है...
व्यास जी को बहुत - बहुत वधाई।
भाई जगदीश व्योम का यह गीत नवगीत विधा की समृद्ध कहन की बानगी देता है| इसके माध्यम से आज के सन्दर्भों पर अत्यंत सार्थक टिप्पणी की है व्योम जी ने| मेरा हार्दिक साधुवाद उन्हें और नवगीत पाठशाला टीम को |
जवाब देंहटाएंकुमार रवीन्द्र
आपका हार्दिक आभार
हटाएंआपका हार्दिक आभार
हटाएंव्योम जी आपका नवगीत पढ़कर होशंगाबाद में आपके रहने का समय याद आ रहा है।
जवाब देंहटाएंकई बार इस गीत नवगीत को पड़ा है. बहुत अचछा लगा पड़कर. लगता है कि मेरे मन की ही बात इसमें कह दी गई है।
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