26 जुलाई 2011

२. भैया जी के स्वप्न लोक में

भैया जी के स्वप्नलोक में
आता रहा शहर।

शीशे जैसी चिकनी सड़कें
आवाजाही चहलपहल
दुल्हन जैसी सजीं दुकानें
नभ को छूते रंग महल
नये नये रूपों में
मन को
भाता रहा शहर।

रूठी बैठीं सुख सुविधाएँ
छोटे ने अपनाया घर
आशाओं की गठरी लेकर
भैया पहुँचे बड़े शहर
उम्मीदों के
गीत सुहाने
गाता रहा शहर

अपनेपन को कितना खोजा
व्यर्थ लगाये कितने फेरे
गूँगी बहरी मानवता ही
मिला दौड़ती साँझ सवेरे
भरी भीड़ में
एकाकीपन
लाता रहा शहर

-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
आबूरोड, राजस्थान

17 टिप्‍पणियां:

  1. "डंडा" भ्रष्टाचार है, छ्ल रूपी वह मर्ज़।
    जिसको फैलाता सदा जनता में ख़ुदगर्ज़॥

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  2. बहुत सुंदर गीत। त्रिलोक सिंह जी को बहुत बहुत बधाई।

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  3. शहरों का एकाकीपन और वहाँ खो गए इंसान के दर्द को बखूबी दर्शाती कविता... कभी मेरे ब्लाग पर आकर टिप दें...

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  4. त्रिलोक सिंह ठकुरेला का यह नवगीत पूरी तरह से कसावट भरा नवगीत है। नवगीत की सारी विशेषताएँ यह नवगीत पूरी करता है। शुरू से लेकर अन्त तक बहुत अच्छा निर्वाह किया है नवगीतकार ने जो कि किसी बहुत ही सिद्धहस्त रचनाकार के द्वारा ही संभव होता है। इतना अच्छा नवगीत पाठशाला में आना बहुत शुभ संकेत है। ठकुरेला जी को वधाई।
    "भैया जी के स्वप्नलोक में
    आता रहा शहर।

    शीशे जैसी चिकनी सड़कें
    आवाजाही चहलपहल
    दुल्हन जैसी सजीं दुकानें
    नभ को छूते रंग महल
    नये नये रूपों में
    मन को
    भाता रहा शहर।"
    क्या बात है ......... मध्यम वर्गीय परिवार की पूरी रामकहानी यहाँ मौजूद है.....

    "रूठी बैठीं सुख सुविधाएँ
    छोटे ने अपनाया घर
    आशाओं की गठरी लेकर
    भैया पहुँचे बड़े शहर
    उम्मीदों के
    गीत सुहाने
    गाता रहा शहर.."
    शहरों में भला गाँव जैसा अपनापन कहाँ ........

    "अपनेपन को कितना खोजा
    व्यर्थ लगाये कितने फेरे
    गूँगी बहरी मानवता ही
    मिला दौड़ती साँझ सवेरे
    भरी भीड़ में
    एकाकीपन
    लाता रहा शहर"
    काश ! ऐसे ही नवगीत रचे जाते रहें......... गजल वाले देखें कि क्या कुछ नहीं है यहाँ.......

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  5. बहुत प्यारा नवगीत है ठकुरेला जी का।बहुत प्यारा नवगीत है ठकुरेला जी का।

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  6. बहुत सुंदर...
    अच्छा लगा आपको पढ़ना...

    आभार...

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  7. उम्मीदों के
    गीत सुहाने
    गाता रहा शहर
    *
    भरी भीड़ में
    एकाकीपन
    लाता रहा शहर

    शहर के दो रूपों को उद्घाटित करता अच्छा नवगीत.
    Acharya Sanjiv Salil

    http://divyanarmada.blogspot.com

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  8. वाह, बहुत सुन्दर नवगीत

    अपनेपन को कितना खोजा
    व्यर्थ लगाये कितने फेरे
    गूँगी बहरी मानवता ही
    मिला दौड़ती साँझ सवेरे
    भरी भीड़ में
    एकाकीपन
    लाता रहा शहर


    सुन्दर भावाभिव्यक्ति

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  9. बहुत अच्छा नवगीत है ठकुरेला जी का। पाठशाला में पहली बार आगमन पर स्वागत और एक बहुत अच्छे नवगीत के लिये वधाई।

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  10. अपनेपन को कितना खोजा
    व्यर्थ लगाये कितने फेरे
    गूँगी बहरी मानवता ही
    मिला दौड़ती साँझ सवेरे
    भरी भीड़ में
    एकाकीपन
    लाता रहा शहर Ati sundar abhivyakti Prabhudayal Shrivastava

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  11. रूठी बैठीं सुख सुविधाएँ
    छोटे ने अपनाया घर
    आशाओं की गठरी लेकर
    भैया पहुँचे बड़े शहर
    उम्मीदों के
    गीत सुहाने
    गाता रहा शहर.."
    सुन्दर नवगीत के लिये वधाई।

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  12. पूरी गाथा और शहर की विविधताओं का अच्छा विवरण प्रस्तुत किया है इस नवगीत में। टिप्पणियाँ भी बहुत अच्छी मिली हैं, आपको बधाई।

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  13. महानगरों में बेतहाशा बढ़ रही संवेदनहीनता को बहुत अच्छी तरह से नवगीत में प्रस्तुत किया गया है। लग रहा है कि अच्छे नवगीत ग़ज़ल के तिलस्म को फीका कर देंगे । वधाई ठकुरेला जी को और वधाई पाठशाला को भी कि नवगीतों को पढ़ने का बहुत अच्छा अवसर मिल रहा है।

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  14. अपनेपन को कितना खोजा
    व्यर्थ लगाये कितने फेरे
    गूँगी बहरी मानवता ही
    मिला दौड़ती साँझ सवेरे
    भरी भीड़ में
    एकाकीपन
    लाता रहा शहर

    अच्छी प्रस्तुति के लिए बधाई

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  15. उत्तम द्विवेदी8 अगस्त 2011 को 6:45 pm बजे

    बहुत ही अच्छा नवगीत पढ़ कर मन प्रसन्न हो गया . आगे क्या कहूँ सभी ने बहुत कुछ कह दिया है .

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