17 अगस्त 2011

८. शहर के एकांत में

भीड़ ,केवल
भीड़ मिलती
शहर के एकांत में
रूह के संग
देह छिलती
शहर के एकांत में


साइबर कैफ़े
हमारी बात
कह पाते नहीं
हम स्वयं से
बिना बोले
तनिक रह पाते नहीं
एक पत्ती
नहीं हिलती
शहर के एकांत में


टूट जाता है
भरोसा
टूट जाते आइने
गिनतियों के
शोर में कोई
किसी को क्या गिने
धूप खुलकर
नहीं खिलती
शहर के एकांत में


चूर हो
लहरें बिखरती
और शक्लें जागतीं
ट्रेन के पीछे
गठरियाँ लिए
अपनी भागतीं
याद,गहरे
जख्म सिलती
शहर के एकांत में

-यश मालवीय
(इलाहाबाद)

9 टिप्‍पणियां:

  1. साधुवाद यश भाई को 'शहर में अकेलापन'सन्दर्भ के इस श्रेष्ठ नवगीत हेतु| मुझे ये पंक्तियाँ विशेष रुचीं -
    टूट जाता है
    भरोसा
    टूट जाते आइने
    गिनतियों के
    शोर में कोई
    किसी को क्या गिने
    धूप खुलकर
    नहीं खिलती
    शहर के एकांत में

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  2. अद्भुत नवगीत है ये यश मालवीय जी का। इससे हम जैसे विद्यार्थियों को सीखने के लिए वाकई बहुत कुछ मिलेगा। बहुत बहुत बधाई उन्हें उस नवगीत के लिए।

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  3. उत्तम द्विवेदी17 अगस्त 2011 को 6:47 pm बजे

    एक अच्छे नवगीत के लिए मालवीय जी को बधाई!

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  4. रूह के संग
    देह छिलती
    शहर के एकांत में

    कटु सत्य... किन्तु गांव भी इससे अलग कहाँ रहे अब? राजनीति ने विष समूचे जीवन में घोल दिया है.

    यश जी बहुत प्रभावशाली नवगीत, बधाई.

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  5. यश जी शहर की सम्वेदना को आपने बेहतरीन ढंग से परिभाषित किया है बहुत सुंदर नवगीत नवगीत की पाठशाला और आपको बधाई

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  6. रूह के संग
    देह छिलती
    शहर के एकांत में

    बहुत सुंदर ....एक अच्छे नवगीत के लियें
    मालवीय जी ,
    आपको बधाई...

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  7. रूह के संग
    देह छिलती
    शहर के एकांत में

    शहर में एकांत बहुत सुंदर

    आपको बधाई
    rachana

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  8. टूट जाता है
    भरोसा
    टूट जाते आइने
    गिनतियों के
    शोर में कोई
    किसी को क्या गिने
    धूप खुलकर
    नहीं खिलती
    शहर के एकांत में
    यश जी इस नवगीत के लिए, बधाई.

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