1 सितंबर 2011

१९. इस नगर से

इस नगर से
आ गए हम तंग।

भीड़ का
पीकर ज़हर हँसते रहो
रोज़ उजड़ो
और फिर बसते रहो
किस तरह के
ये नियम, ये ढंग
इस नगर से
आ गए हम तंग।

थी बहुत
अपनी नदी मीठा कुआँ
खो गए सब
बच रहा काला धुआँ
लग गई है
ज़िंदगी में जंग
इस नगर से
आ गए हम तंग।

-डॉ. हरीश निगम
(सतना)

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