याद आया, गाँव हमको
याद आया ।
याद आया, गाय का घी-दूध मट्ठा
बाजरे की रोटियाँ, आचार खट्टा
शहर में तो आज तक
कुछ भी न भाया
याद आया ।
याद आया पेड़ पर चढ़ना, चढ़ाना
हों किसी के भी पके अमरूद खाना
और सबसे देखना
खुद को सवाया
याद आया ।
याद आया खूब रस की खीर खाना
स्वाद कैसा था, बहुत मुश्किल बताना
बाद उसके फिर हमें
कुछ भी न भाया
याद आया ।
-कृष्ण शलभ
(सहारनपुर)
कृष्ण शलभ का स्मृतिदंशों का यह गीत बहुत ही सटीक टिप्पणी करता है महानगर में अपमी अस्मिता को खोजते ग्राम्य मन की व्यथा पर| साधुवाद शलभ जी को इस नवगीत के लिए एवं 'नवगीत पाठशाला' को इसकी प्रस्तुति के लिए|
जवाब देंहटाएंजो लोग गाँवों से जुड़े हुये हैं वे जानते हैं कि अब गाँवों की स्मृतियाँ मात्र ही रह गई हैं, लोक संस्कृति निरंतर छीजती चली जा रही है, लोकगीत अब घावों में भी सुनने को नहीं मिल पाते हैं, सब जगह शहरों की अपसंस्कृति हावी होती जा रही है, शलभ जी का यह नवगीत उन तमाम स्मृतियों को संजोये हुये है। शलभ जी का नवगीत की पाठशाला में नवगीत के साथ आना बहुत खुशी की बात है।
जवाब देंहटाएंSundar CHITRAN.Pyara Navgeet.
जवाब देंहटाएंTRILOK SINGH THAKURELA
बहुत अच्छा और सामयिक नवगीत के लिये वधाई।
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