बदले बदले से लगते हैं
उत्सव के मौसम।
आई शरद
शक्ति पूजा की
जगह जगह चर्चा
पूजा-अर्चन, दीपमालिका
कितना ही खर्चा
किन्तु अहिल्या पाषाणी सी
क्र्रोध भरे गौतम।
सिर्फ जलाये गये
हर जगह कागज के पुतले
अब भी देव डरे सहमे हैं
रावण-राज चले
वन में राम, बध्द्व है सीता
विवष संत संगम।
इस पिशाचनी महँगाई की
कब तक घात सहें
भूखी नंगी दीवाली की
किस से व्यथा कहंे
पर्वत बनी समस्याऐें है
तिनके जैसे हम
त्रिलोक सिंह ठकुरेला
आबूरोड (राज.)
उत्सव के मौसम।
आई शरद
शक्ति पूजा की
जगह जगह चर्चा
पूजा-अर्चन, दीपमालिका
कितना ही खर्चा
किन्तु अहिल्या पाषाणी सी
क्र्रोध भरे गौतम।
सिर्फ जलाये गये
हर जगह कागज के पुतले
अब भी देव डरे सहमे हैं
रावण-राज चले
वन में राम, बध्द्व है सीता
विवष संत संगम।
इस पिशाचनी महँगाई की
कब तक घात सहें
भूखी नंगी दीवाली की
किस से व्यथा कहंे
पर्वत बनी समस्याऐें है
तिनके जैसे हम
त्रिलोक सिंह ठकुरेला
आबूरोड (राज.)
इस पिशाचनी महँगाई की
जवाब देंहटाएंकब तक घात सहें
भूखी नंगी दीवाली की
किस से व्यथा कहंे
पर्वत बनी समस्याऐें है
तिनके जैसे हम
मन को छूती पारिस्थिक विषमता का शब्द चित्र प्रभावी है. भाषा में देशज स्पर्श हो तो बेहतर होगा.
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
जवाब देंहटाएंअधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
क्या बात है…बहुत सुंदर। पुतले ही तो जलते आ रहे हैं…आदमी ही आदमी को तलते आ रहे हैं……जमाने से चला आ रहा है…नक्स्लियों का कायराना खेल…कल ही देख लीजिये…बेगुनाह सी आर पी एफ़ के कुछ नौजवान खल्लास……
जवाब देंहटाएंठकुरेला जी नवगीत बहुत ही सुंदर है, इसे प्रस्तुत करने के लिए पाठशाला का आभार
जवाब देंहटाएं