20 दिसंबर 2011

२०. रात की गीली हथेली

रात की गीली हथेली ने
उदासी पोंछ डाली है भुवन की
फूल से उसके कपोलों में
लुनाई जागरण की !

छलछलाते निर्झरों जैसी उमंगें
कह रही हैं पत्थरों से
फिर तुम्हें वह छोड़ आगे निकल जाए
मत रहो यूँ थिर बहावों में समय के
मत गँवाओ ज़िन्दगी के क्षण
कि ये हैं प्रार्थनाओं के
कि ये हैं ब्राह्मघड़ियाँ आचमन की !!

कोहरे में छुप तुम्हें छूने-जगाने आ गई
चिड़ियो कहो ऋतु के सँदेसे
हो गई हैं वानप्रस्थी वर्जनाएँ
क्यूँ खड़े हो अमलतासो अनमने से
हृदय में रच लो छटाएँ
प्राण में संजीवनी भर लो
धरणि-चुंबित गगन की !!!

--अश्विनी कुमार विष्णु
अकोला, महाराष्ट्र से

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