19 जनवरी 2012

५, गूँगा सूरज

चलते-चलते गूंगा सूरज
क्षण भर तल्ख़ तल्ख़ शब्दों में
जाने क्या क्या आज लिख गया
श्यामपट्ट पर शाम ढले।

किसी पेड़ की
दुखद मौत पर
कोई चिड़िया सिसक रही है
प्यासे प्रश्नों
के उत्तर में
नदी मौन है झिझक रही है
धूप छांव की फटी पिछौरी
ओढ़े ये अनमने मौसम
आए सूनेपन को छलने
किंतु स्वयं ही गए छले।

जले चिराग़ों की
बस्ती में
घुस आईं जंगली आँधियाँ
खड़ी कर गईं
कब्रगाह में
रोशन लम्हों की समाधियाँ
किसी सिसकती लौ के आँसू से
जब रचे गए काजल गृह
अंधकार उद्घाटन करने
रोशनियों के गाँव चले।

ठहरे हुए समय को
जब से
बारूदों ने नब्ज़ छुआ है
मौन हवा के
कटे हाथ से
रिस रिस कर के खून चुआ है
जिस्म नोच कर आसमान का
एक लोथड़ा लिए चोंच में
उतर रहे हैं गिद्ध
पसरते सन्नाटों की छाँव तले।

-रामानुज त्रिपाठी

7 टिप्‍पणियां:

  1. रामानुज जी का यह नवगीत सीधे सीधे दिल को छू लेता है। बधाई उन्हें इस सुंदर नवगीत के लिए

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  2. ठहरे हुए समय को
    जब से
    बारूदों ने नब्ज़ छुआ है
    मौन हवा के
    कटे हाथ से
    रिस रिस कर के खून चुआ है
    जिस्म नोच कर आसमान का
    एक लोथड़ा लिए चोंच में
    उतर रहे हैं गिद्ध
    पसरते सन्नाटों की छाँव तले।

    रामानुज जी! इस सटीक, सामयिक और सार्थक नवगीत हेतु बधाई.

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  3. ह्रदय की गहराई मे उतरता गीत
    किसी पेड़ की
    दुखद मौत पर
    कोई चिड़िया सिसक रही है
    प्यासे प्रश्नों
    के उत्तर में
    नदी मौन है झिझक रही है
    आदरणीय रामानुज जी वास्तव मे बधाई के पात्र हैं

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