शीत से कँपती धरा की
ओढ़नी है धूप
कोहरे में छिप न पाये
सूर्य का शुभ रूप
सियासत की आँधियों में उड़ाएँ सच की पतंग
बाँध जोता और माँझा, हवाओं से छेड़ जंग
उत्तरायण की अँगीठी में बढ़े फिर ताप-
आस आँगन का बदल रवि-रश्मियाँ दें रंग
स्वार्थ-कचरा फटक-फेंके
कोशिशों का सूप
मुँडेरे श्रम-काग बैठे सफलता को टेर
न्याय-गृह में देर कर पाये न अब अंधेर
लोक पर हावी नहीं हो सेवकों का तंत्र-
रजक-लांछित सिया वन जाए न अबकी बेर
झोपड़ी में तम न हो
ना रौशनी में भूप
पड़ोसी दिखला न पाए अब कभी भी आँख
शौर्य बाली- स्वार्थ रावण दबाले निज काँख
क्रौच को कोई न शर अब कभी पाये वेध-
आसमां को नाप ले नव हौसलों का पांख
समेटे बाधाएँ अपनी
कोख में अब कूप
-आचार्य संजीव सलिल
इस सुंदर नवगीत के लिए आचार्य जी को बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंसज्जन करें सराहना, है सचमुच सौभाग्य.
हटाएंकरें प्रशंसा असज्जन, तो ले लो वैराग्य..
तथास्तु.
जवाब देंहटाएंआशावादी नवगीत.सुदर.
आशा पर
हटाएंआसमान टाँगकर.
ले आयें गीत नए
शारदा से माँगकर.
गुनगुनाएं-गायेंगे
उत्सव मनाएंगे..
बहुत सुन्दर शुभकामनाएँ हैं आ. संजीव जी.
जवाब देंहटाएंपरमेश्वर हैं साथ
हटाएंचित मत हो अब चंचल.
मौन न हो, रच गीत नव
दे बिखेर परिमल..
सुंदर नवगीत के लिए आचार्य जी को बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंPrabhudayal
प्रभु दयालु हैं जानकर
हटाएंअर्पित करता गीत.
वह तंदुल स्वीकार कर
'सलिल' निभाता प्रीत..
सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंअवनीश तिवारी
मुम्बई
सलिल न कलकल बह सके
हटाएंमिले न गर अवनीश.
लहर-लहर नित गीत गा-
कहे अमर वागीश..
शीत से कँपती धरा की ओढ़नी है धूप
जवाब देंहटाएंकोहरे में छिप न पाये सूर्य का शुभ रूप
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ अच्छे नवगीत के लिये आचार्य संजीव जी को बहुत बहुत बधाई।
धन्यवाद।
विमल कुमार हेड़ा।
सलिल विमल हो तभी दिखता सच का रूप.
हटाएंकर देती है मलिनता, सारे रूप अरूप..
आशा की नई किरण दिखाती रचना |
जवाब देंहटाएंकिरण मोहिनी जगाती, नव आशा-प्रतिमान.
हटाएं'सलिल' धार में उतरते , हर्षित हो दिनमान..