31 जनवरी 2012

१८. सुरज देवता आये

सुरज देवता आये
जंगल-घाट सिहाये

धूप आरती हुई
गंध के पर्व हुए दिन
ओस-भिगोई
बिरछ-गाछ की साँसें कमसिन

हरी घास ने
इन्द्रधनुष हैं उमग बिछाये

बर्फ पिघलने लगी
नदी-झरने भी लौटे
हटा दिये किरणों ने
अपने धुंध-मुखौटे

भौरों ने हैं
गीत फागुनी दिन-भर गाये

पीली चूनर ओढ़
हवा ने रंग बिखेरे
व्यापे घर-घर
सरसों के रँग-रँगे उजेरे

ऋतु फगुनाई
बूढ़े बरगद भी बौराये

कुमार रवीन्द्र
हिसार से

9 टिप्‍पणियां:

  1. विमल कुमार हेड़ा।1 फ़रवरी 2012 को 8:09 am बजे

    पीली चूनर ओढ़
    हवा ने रंग बिखेरे
    व्यापे घर-घर
    सरसों के रँग-रँगे उजेरे
    सुन्दर गीत के लिये कुमार रवीन्द्र जी को बहुत बहुत बधाई,
    धन्यवाद
    विमल कुमार हेड़ा।

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    1. हेड़ा जी, मेरे गीत को आपका दुलार मिला -इस स्नेह के लिए मैं आपका अत्यंत आभारी हूँ|

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  2. जिस सुकुमारता से छाँटकर नवगीत में एक एक शब्द पिरोए गए हैं वह अद्भुत है। सुरज देवता, सिहाये, बिरछ गाछ आदि मोहक शब्द हैं। नदी झरने भी लौट... क्या बात है, वे जो सर्दियों में बर्फ जम जाने से सूख गए थे उन झरनों की बात हो रही है.. सिर्फ एक शब्द 'लौटे' से स्पष्ट हो जाता है। धुंध मुखौटे एवं 'सरसों के रंग रँगे उजेरे' बड़े आकर्षक प्रयोग हैं, मन को लुभाने वाले। कुल मिलाकर गीत इस कार्यशाला का अनमोल रतन रहा। बहुत बहुत धन्यवाद सहयोग के लिये। आपकी टिप्पणियाँ यहाँ के नवरचनाकारों के लिये बहुत उपयोगी होती है। आशा है आपका यह स्नेह हमें आगे भी मिलता रहेगा।

    पूर्णिमा वर्मन

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  3. बहुत सुन्दरता से लिखा है..
    kalamdaan.blogspot.com

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  4. विर्क जी, आपने मेरी रचना को अपने ब्लॉग -'चर्चा मंच' पर स्थान दिया| मेरा हार्दिक आभार स्वीकारें| 'चर्चामंच' एवं आपके अन्य ब्लॉग-पत्रिकाओं से परिचित होना सुखद रहा|

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  5. कुमार रवींद्र जी के इस पुष्ट नवगीत से एक बार फिर बहुत कुछ सीखने को मिला है। बहुत बहुत बधाई उन्हें इस नवगीत के लिए।

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  6. बहुत सुन्दर किवता......
    शुभकामनाएं....

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  7. बहुत सुन्दर...
    काव्य की इस विधा को यहाँ जानना और रसास्वादन करना बड़ा सुखद है..
    आभार...

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