भारतीय काव्य ने ऋतु आगमन को जिस अपूर्व भव्यता से सहेजा है वह अप्रतिम है । वैदिक संस्कृति में तीन ऋतुएँ - ग्रीष्म, वर्षा, शीत- विविध आध्यात्मिक अनुष्ठानों का हेतु थीं। यह क्रम उत्तरोत्तर विकसित होता रहा और ऋतु आवर्तन के सँग नए-नए पर्व, धार्मिक आयोजन, सामाजिक उत्सव सजते-सँवरते गए। "सूर्य के उत्सव का पर्व " मकर-संक्रान्ति सूर्य के उत्तरायण प्रवेश की सन्धिवेला है । वसंत की गुपचुप आहट, नए रँग नई चमक नई महक में सद्यस्नाता-सी प्रकृति, श्रम की सार्थकता निरख प्रमुदित-मन जन-समाज, सृष्टि के कण-कण में सौन्दर्य छलका हुआ-सा ! और इस अपरूप दृश्यावली को सिरजता अक्षय तेजोमय सूर्य ! मंद-मंद मुसकुराती उषाकालीन वर्णछटाएँ हों कि मद्धिम-मद्धिम मुँदती सांध्यकालीन आलोकशोभा सूर्य की सतरंगी रश्मियाँ अनन्त युगों से सृष्टि को अभिनव रूपवैभव एवं ऋद्धि-सिद्धि सम्पन्न किए हुए हैं । सहस्रकर के प्रकाशपुंज बिना ब्रह्माण्ड की कल्पना करना भी असंभव है ।
भारत नदियों का देश है । पवित्र सप्त-नदियों की ही भाँति सैकड़ों छोटी बड़ी सदानीरा जलधाराएँ आदिकाल से ही अर्पण-तर्पण-आराधन-स्नान आदि बहुत से उपक्रमों का हेतु रही हैं । मकर संक्रान्ति के महत्व में यह तथ्य भी सन्निहित है कि जो नदी-स्नान गंगा-स्नान के पर्व के साथ कुछ पखवाड़ों के लिए बंद हो जाता है वह मकर-संक्रान्ति से ही पुनः प्रारम्भ होता है । मंगलकार्य सम्पन्न करने की शुरूआत भी यहीं से होती है । कृष्ण कुमार तिवारी ने घर-परिवार गाँव-गोट की इसी उत्सवी छवि से अपने नवगीत को सँवारा है ;
" संक्रान्ति के शुभ अवसर पर
माँ मुझको स्नान करा दो
गंगा तट पर हम जायेंगे
थोड़ा दर्शन प जायेंगे
पहले तो स्नान करेंगे फिर
तिल का लड्डू खायेंगे
असहाय निर्बल लोगों में
मुझसे खिचड़ी दान करा दो " --( बालहठ)
जन-समुदाय में प्रतिष्ठित परम्पराएँ ही किसी राष्ट्र की समन्वित संस्कृति की संवाहक होती हैं । पूरे परिवेश को स्वर देता-सा शन्नो अग्रवाल का 'सूरज ने खोले नयन कोर' लोक-संस्कृति व लोक-जीवन का चित्रण करता सफल नवगीत है :
" संक्रान्ति मानते हैं हिलमिल
खाते हैं आज सभी गुड़-तिल
सबके हैं हृदय मगन-मगन
ख़ुशबू से महके घर-आँगन
भरता धरती का नवल कलश
अमृत लगता गन्ने का रस
आगत बसंत की चौखट पर
कृषकों के मन लेते हिलोर "
इसी प्रकार शशिकांत गीते ने भी संक्रांति पर्व-आगमन का श्रेष्ठ भावन-रूपायन किया है 'मकर राशि के सूर्य' में । प्रवाहपूर्ण शब्द-योजना और अभिव्यक्ति की सहजता लक्षणीय है :
"मकर राशि के सूर्य आज तो
लगते हैं लड्डू गुड़-तिल के
मतवाला-सा पवन घूमता
नाच रही खेतों में फ़सलें
जी करता है हम भी नाचें
गाएँ ज़ोर-ज़ोर से हँस लें
धीरे धीरे उतर रहे हैं
ओढ़े हुए मौन के छिलके "
लोक अपनी जीवंतता में प्रतिक्षण वर्तमान रहता है । उसकी असीम व्यापकता में प्राणिमात्र की चेतना को प्रशस्त करने की सामर्थ्य है । यह बहुत स्वाभाविक है कि त्रिलोक को द्युतिमान करते सूर्य के सामीप्य में कवि मन को अनन्य आत्मीयता की प्रतीति होने लगे और वह प्रणति अर्पित करते हुए कह उठे :
"युगों युगों के तापस तुम सँग
ताप-तपस्या मैं सह लूँगी
माघ-पौष की ठिठुरन बैरिन
आस तेरी में मैं सह लूँगी
जानूँ तुम फाल्गुन के आते
भेजोगे वासन्ती गहना
तू जाने, तुझसे क्या कहना " --( शशि पाधा, रे सूरज तू चलते रहना)
रचना श्रीवास्तव का 'मुसकाए सूरज' उनकी सौंदर्यभाविक दृष्टि का यथेष्ट परिचायक है । धुन्ध से छनती धूप की रूपरम्यता उन्हें सुदूर अतीत में ले जाती है, उन स्मृतियों में जहाँ माँ की गुनगुनाहट है, अलसछवि गाँव है, अनोखा अपनापन है :
"बादलों की धुंध में मुसकाए
सूरज
खोल गगन के द्वार
धरा पर आए
अधमुंदे नयनों को खोले
सोया सोया गाँव
किरणें द्वार द्वार पर डोलें
नंगे नंगे पाँव
मधुर मधुर मुसकाती अम्मा
गुड़ का पाग पकाए
हौले
बादलों की धुंध में
कुछ गाए "
"दिनकर तेरी ज्योत बढ़े" में कल्पना रामानी मातृतुल्य वत्सलता के साथ जब सूर्य को असीसते हुए कहती हैं "ज्यों दिन/ तिल-तिल बढ़ते जाते/ दिनकर तेरी ज्योत बढ़े" तो मन सहज ही अनुभूति-आर्द्र हो उठता है । भावना की उज्ज्वलता और उमगे उल्लास भरे नवगीत में उनकी परिपक्व जीवन-दृष्टि की स्पष्ट झलक है :
"हर कोने से
सजी पतंगें
मुक्त गगन में लहराईं
तिल गुड़ की सौंधी मिठास
रिश्तों में अपनापन लाई
युवा उमंगें बढ़ी सौगुनी
ज्यों ज्यों ऊपर
डोर चढ़े ! ॰ ॰ ॰
बढ़ता चल मन आरोही
पग नए शिखर पर
आज पड़े !"
ये सभी नवगीत इस अर्थ में सराहनीय हैं कि इनमें लोक अपनी चिराचरित परम्पराओं के सँग उपस्थित है, मुखरित है । तदरूपी बिम्बों के माध्यम से उत्सव का सर्वांग रूपण करने में सफल रहे हैं सभी रचनाकार। छल-छद्म भरी विज्ञापनी उत्सवधर्मिता के इस युग में ये रचनाएँ नितांत सच्ची भी लगती हैं और अत्यंत अच्छी भी । 'ग्लोबलाइज़ेशन' की आड़ में चंद प्रभुतासंपन्न शक्तियाँ जिस सुनियोजित काइयाँपन के साथ लोक व लोक-संस्कृति को तहस-नहस करने पर तुली हैं उसे भाँपने भर से ही भावनाएँ भड़भड़ा उठती हैं । संवेदनशील शब्दकर्मी मन तिलमिला उठता है अपने युग का यह विसंगत यथार्थ देखकर :
"चलते-चलते गूँगा सूरज
क्षण भर तल्ख़ तल्ख़ शब्दों में
जाने क्या क्या आज लिख गया
श्यामपट्ट पर शाम ढले॰ ॰ ॰
जले चिरागों की
बस्ती में
घुस आईं जंगली आँधियाँ
खड़ी कर गईं
कब्रगाह में
रोशन लम्हों की समाधियाँ
किसी सिसकते लौ के आँसू से
जब रचे गए काजलगृह
अंधकार उद्घाटन करने
रोशनियों के गाँव चले " (रामानुज त्रिपाठी, गूँगा सूरज)
धर्मेंद्र कुमार सिंह ने "सूरज के ढाबे पर" में तमाम मानवीय मूल्यों को तत्परता से लीलते जा रहे बाज़ार-तंत्र तथा उत्तराधुनिक जीवन-व्यवहार में आए बदलावों की पड़ताल करते हुए सामयिक व मार्मिक हस्तक्षेप किया है :
" सूरज के ढाबे पर फिर से
दहकी है तंदूरी आग
मौसम आज परोसे मक्के
की रोटी सरसों का साग ॰ ॰ ॰
धीरे धीरे सर्दी जाएगी गर्मी आएगी
बर्गर की कैलोरी तन में जमती ही जाएगी
कितने दिन तक मानव ऐसा कूड़ा खाएगा
इक दिन सूरज मॉलों में भी ढाबा खुलवाएगा
उस दिन जाड़ा ख़ुद ले लेगा
इस दुनिया से चिर बैराग । "
संवेदनशून्य वर्तमान के अंतर्विरोधों से जूझते मनुष्य के लिए सूर्य के शुभ रूप की कामना की है आचार्य संजीव सलिल ने "शीत से कँपती धरा" में :
"उत्तरायण की अँगीठी में बढ़े फिर ताप--
आस आँगन का बदल रवि-रश्मियां दें रंग
स्वार्थ-कचरा फटक फेंके
कोशिशों का सूप
शीत से कँपती धरा की
ओढ़नी है धूप
कोहरे में छिप न पाए
सूर्य का शुभ रूप !"
पूँजीकामी व्यवस्था की सर्वग्रासी लिप्सा कुटिल तटस्थता के साथ जनसामान्य के जीवन की सभी संभावनाओं पर धूल उलीचे जा रही है । निरंतर तिरस्कृत, उपेक्षित, अभाव-संघर्षों व ऊहापोह भरे आम आदमी की घनीभूत व्यथा को मार्मिकता के साथ उभारा है प्रभुदयाल श्रीवास्तव ने "तिल के लड्डू" में :
"झोंपड़ियों के ठीक सामने
बिल्डिंग पचपन माले की
तिल के लड्डू माँग रही है
बिटिया रिक्शेवाले की ॰ ॰ ॰
एक तरफ़ छप्पर छज्जे
छककर पकवान उड़ाते
बड़ी हवेली के ज़र्रे तक
ख़ुरमा बतियाँ खाते
और इस तरफ़ खड़ी बेचारी
मजबूरी लाचारी
केंप लगाकर भाग्य बेचते
रोटी के व्यापारी
तन और मन की सौदेबाज़ी
कीमत लगी निवाले की । "
कुशल बिम्बात्मकता, प्रतीक-विधान, भाव, संवेदना व विचारों की अनूठी समन्विति ने "सूरज के घोड़े" को असीम अर्थविस्तार दिया है :
"सूरज से भी बढ़े चढ़े हैं
सूरज के घोड़े
रथ के आगे सजे खड़े हैं
सूरज के घोड़े
लो सूरज के
हाथों से वल्गाएँ छूट गईं
बेलगाम हो गए सभी सीमाएँ टूट गईं
किसको है अब होश कि इन
सातों के मुख मोड़े " -- (सत्यनारायण)
मानवीय सरोकारों से प्रतिबद्धता दर्शाता श्रीकान्त मिश्र 'कान्त' का नवगीत "सर्द मौसम की कहानी" विशिष्ट ग्राम-बोध के चलते मन को छू लेता है । किसान की संवेदनसिक्त कर्मठता का प्रकृति की मनोहारी शोभा के साथ संयोजन देखते ही बनता है :
"सर्द रातों में लिखी है
अथक श्रम की नव कहानी
कृषक राजा कह रहा है
सुन रही है अवनि रानी ॰ ॰ ॰
उल्लसित उड़ती पतंगें
नील नभ पर अनिल में
बंधा डोरी से समय की
जीव जीवन अखिल में
पर्वतों की चोटियों पर
बर्फ़ की चादर सुहानी "
आपाधापी, ऊब, अंतहीन विषण्णता से उपजे नैराश्य को विच्छिन्न करता स्वर है परमेश्वर फुँकवाल के नवगीत "किरणों की अगाध नदी" का । उनके शब्दों में आस्था भी है उद्बोधन भी :
" धरती कभी न छोड़े चलना
सूरज कभी न जलना !
गिरें चढ़ें ऋतुओं के पारे
हालातों से हम न हारें
कर्म रँगेगा जीवन सारे
उससे ही चमकेंगे तारे
सुबह गँवा दी सोने में तो
शाम हाथ मलना "
प्रकृति के साथ हर देशकाल परिस्थिति में मानव ने अंतरंग साहचर्य अनुभव किया है । नानारूपधरा प्रकृति के प्रस्तीर्ण सौन्दर्य से अभिभूत हुए बिना नहीं रहा जा सकता । कुमार रवीद्र का सुघर सुललित नवगीत "सूरज देवता आए " सहज ही पाठक को तन्मनस्क कर लेता है :
"सूरज देवता आये
जंगल-घाट सिहाये
धूप आरती हुई
गंध के पर्व हुए दिन
ओस-भिगोई
बिरछ-गाछ की साँसें कमसिन
हरी घास ने
इंद्रधनुष हैं उमग बिछाये"
इसी प्रकार हरीश निगम का प्रकृति रूपांकन रोम-रोम में पुलक भर तन-मन को संपूर्णतया झंकृत-संवेदित कर देता है :
"शाखों ने झूमकर बुने
किरणों के गीत कुनकुने
देहों को
बांसुरी बनाने के
दिन आए
धूप धूप गाने के" -- (धूप धूप गाने के )
संध्या सिंह का "पतंग एक सपना" मर्मोष्म अंतर्भावों भरा, आशा-उल्लास के ओजस्वी स्वरों से अलंकृत सुमधुर नवगीत है । संवेदना की हृदयगम्यता और मनोमयी लयरचना प्रभावित करती है:
"समय उड़ चला सर्द हवा सा
मन के आसमान का सूरज
देता मगर दिलासा
सपनों पर से हटा कुहासा
रेंग लिए धरती पर कितना
अब अम्बर से जुड़ने दो
पतंग सरीखी रंग-बिरंगी
आशाओं को उड़ने दो
कागज से भी कोमल हैं पर
उलझ न जाएँ ज़रा सा "
अनिल कुमार वर्मा का शब्द-संयमित नवगीत "साँसों की वीणा" जीवन के विविध संदर्भों का गाम्भीर्यपूर्ण प्रत्यंकन करता है :
जीवन भर सूरज सा जलते ही जाना है
जग के उपहासों से
मन में मत व्रीड़ा हो
अधरों पर हास लिए
अंतस की पीड़ा हो॰ ॰ ॰
जीवन की प्यासों में
आशा का नीर भरे
साँसों की वीणा को
कसते ही जाना है "
कार्यशाला-२० "सूरज रे जलते रहना" के मिस रचनाकारों के साथ ही साथ पाठकों को भी सूर्य की दिव्य दीप्ति में संचरण का अवसर उपलब्ध कराने के लिए अभिनंदनीय हैं। सुझाए विषय को केंद्र में रख कुल अट्ठारह रचनाकारों ने अपने कृतित्व से इस आयोजन को भव्य विशिष्टता देकर नवगीत के समुज्ज्वल भविष्य के प्रति काव्यप्रेमियों को आश्वस्त किया है ।
---- डा॰ अश्विनी कुमार विष्णु,
आ अश्विनी जी, आपने बहुत सुन्दर, काव्यात्मक और सटीक समीक्षा प्रस्तुत की है. हर नवगीत के अंतर में बसकर वहाँ से उसकी आत्मिक आवाज पहचानी है. आपकी समीक्षा अपने आप में सूरज के प्रति संसार की आस्था को गुनगुनाती हुई लगती है. अपना अमूल्य समय देकर अपने गीतों के सार्थकता को जांचा उसके लिए धन्यवाद बहुत छोटा शब्द है. आपको नमन.
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट कल 15/3/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
जवाब देंहटाएंकृपया पधारें
http://charchamanch.blogspot.com
चर्चा मंच-819:चर्चाकार-दिलबाग विर्क
नवगीत की दावत देता मनभावन पोस्ट .जीवन के राग रंग मौसम से प्रेरित हैं .....
जवाब देंहटाएंआदरणीय अश्विनी जी और पूर्णिमा जी को इस सर्वांगीण समीक्षा के लिए कोटि कोटि साधुवाद। ये समीक्षा न केवल हम जैसे विद्यार्थियों के लिए उत्साहवर्धक का काम करेगी वरन नवगीत के विकास में भी एक मील का पत्थर साबित होगी।
जवाब देंहटाएंsunder prastuti
जवाब देंहटाएंआदरणीय अश्विनी जी,
जवाब देंहटाएंकार्यशाला २० की प्रत्येक रचना के केंद्र भाव को उजागर करते हुए प्रेरणात्मक शब्दों में समीक्षा प्रस्तुत करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद | आभार पूर्णिमा जी |