खिलखिलायीं पल भर तुम
हरसिंगार मुस्काए
अँखियों के पारिजात
उठें-गिरें पलक-पात
हरिचंदन देह धवल
मंदारी मन प्रभात
शुक्लांगी नयनों में
शेफाली शरमाए
परजाता मन भाता
अनकहनी कह जाता
महुआ तन महक रहा
टेसू रंग दिखलाता
फागुन में सावन की
हो प्रतीति भरमाए
पनघट खलिहान साथ,
कर-कुदाल-कलश हाथ
सजनी-सिन्दूर सजा-
कब-कैसे सजन-माथ?
हिलमिल चाँदनी-धूप
धूप-छाँव बन गाए
संजीव सलिल
जबलपुर
हरसिंगार मुस्काए
अँखियों के पारिजात
उठें-गिरें पलक-पात
हरिचंदन देह धवल
मंदारी मन प्रभात
शुक्लांगी नयनों में
शेफाली शरमाए
परजाता मन भाता
अनकहनी कह जाता
महुआ तन महक रहा
टेसू रंग दिखलाता
फागुन में सावन की
हो प्रतीति भरमाए
पनघट खलिहान साथ,
कर-कुदाल-कलश हाथ
सजनी-सिन्दूर सजा-
कब-कैसे सजन-माथ?
हिलमिल चाँदनी-धूप
धूप-छाँव बन गाए
संजीव सलिल
जबलपुर
सुंदर नवगीत के लिए सलिल जी को बधाई
जवाब देंहटाएं"पनघट खलिहान साथ,
जवाब देंहटाएंकर-कुदाल-कलश हाथ
सजनी-सिन्दूर सजा-
कब-कैसे सजन-माथ?
हिलमिल चाँदनी-धूप
धूप-छाँव बन गाए"
आदरणीय संजीव जी, क्या सुन्दर शब्द चित्रण है , आँखों के सामने पनघट और खलिहान कॉ दृश्य खींच देता है |अनुपम नवगीत के लिए धन्यवाद |
परजाता मन भाता
जवाब देंहटाएंअनकहनी कह जाता
महुआ तन महक रहा
टेसू रंग दिखलाता
फागुन में सावन की
हो प्रतीति भरमाए
आँखों में चित्र सा सजता आपका नवगीत बहुत सुंदर हैं
बधाई आपको
रचना
आ संजीव जी, बहुत सुन्दर नवगीत है, प्रकृति को रूप में बांधता हुआ. बधाई आपको.
जवाब देंहटाएं