सारी रात
महक बिखराकर
हरसिंगार झरे ।
सहमी दूब
बाँस गुमसुम है
कोंपल डरी-डरी
बूढ़े बरगद की
आँखों में
खामोशी पसरी
बैठा दिए गए
जाने क्यों
गंधों पर पहरे ।
वीरानापन
और बढ़ गया
जंगल देह हुई
हरिणी की
चंचल-चितवन में
भय की छुईमुई
टोने की ज़द से
अब आखिर
बाहर कौन करे ।
सघन गंध
फैलाने वाला
व्याकुल है महुआ
त्रिपिटक बाँच रहा
सदियों से
पीपल मौन हुआ
चीवर पाने की
आशा में
कितने युग ठहरे ।
डा० जगदीश व्योम
नौयडा
महक बिखराकर
हरसिंगार झरे ।
सहमी दूब
बाँस गुमसुम है
कोंपल डरी-डरी
बूढ़े बरगद की
आँखों में
खामोशी पसरी
बैठा दिए गए
जाने क्यों
गंधों पर पहरे ।
वीरानापन
और बढ़ गया
जंगल देह हुई
हरिणी की
चंचल-चितवन में
भय की छुईमुई
टोने की ज़द से
अब आखिर
बाहर कौन करे ।
सघन गंध
फैलाने वाला
व्याकुल है महुआ
त्रिपिटक बाँच रहा
सदियों से
पीपल मौन हुआ
चीवर पाने की
आशा में
कितने युग ठहरे ।
डा० जगदीश व्योम
नौयडा
व्योम जी, बहुत कुछ सिखने को मिला. धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शारदा मोंगा जी
हटाएंसघन गंध/फैलाने वाला
जवाब देंहटाएंव्याकुल है महुआ
त्रिपिटक बाँच रहा/सदियों से
पीपल मौन हुआ
चीवर पाने की/आशा में
कितने युग ठहरे।
हरसिंगार पर अब तक आये नवगीतों में भाई जगदीश व्योम का यह गीत मुझे सर्वश्रेष्ठ लगा है| मेरी राय में. नवगीत पाठशाला के इस अंक की यह उपलब्धि-रचना है| साधुवाद है भाई जगदीश व्योम को इस श्रेष्ठ नवगीत के लिए|
कुमार रवीन्द्र जी की ये टिप्पणी पढ़कर नवगीत लिखने का श्रम सार्थक हुआ, आभार आपका गरिमामय टिप्पणी के लिए।
हटाएंसुन्दर , लयात्मक नवगीत ... !
जवाब देंहटाएंसहमी दूब
बाँस गुमसुम है
कोंपल डरी डरी
बूढ़े बरगद की
आँखों मेँ
खामोशी पसरी
बैठा दिए गये
जाने क्यों
गंधों पर पहरे ।
धन्यवाद सुरेन्द्र पाल जी
हटाएंwaah bahut sunder ........
जवाब देंहटाएं.सारी रात
महक बिखराकर
हरसिंगार झरे ।...........behad khoobsurat rachna , hardik badhai vyom ji
शशि पुरवार जी, नवगीत को पसन्द करने के लिए आभार
हटाएंबहुत सुंदर नवगीत है जगदीश व्योम जी का। कुमार रवींद्र जी से सहमत हूँ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद धर्मेन्द्र कुमार सज्जन जी
हटाएंआदरणीय व्योम जी,
जवाब देंहटाएंआपके इस नवगीत ने एक वातावरण सा प्रस्तुत किया जिसमें भय, व्याकुलता, असहायता के भावों -अनुभावों से गुज़रता है पाठक | चिर आनंद और शान्ति की आस में कितने और युगों की प्रतीक्षा ? वाह!अनुपम | धन्यवाद आपका |
शशि पाधा जी, आपकी विशुद्ध साहित्यिक टिप्पणी के लिए आभार
हटाएंसघन गंध
जवाब देंहटाएंफैलाने वाला
व्याकुल है महुआ
त्रिपिटक बाँच रहा
सदियों से
पीपल मौन हुआ
चीवर पाने की
आशा में
कितने युग ठहरे ।
सुंदर भावों से सजा नवगीत
बधाई आपको
रचना
धन्यवाद रचना जी
हटाएंआदरणीय व्योम जी का बहुत सुन्दर गीत .... सहमी दूब
जवाब देंहटाएंबाँस गुमसुम है
कोंपल डरी-डरी
बूढ़े बरगद की
आँखों में
खामोशी पसरी
बैठा दिए गए
जाने क्यों
गंधों पर पहरे ।
एक अनजाने भय से गुज़रता गीत ....पाठशाला मे अगर आप जैसे गीतकार हैं तो बहुत कुछ सीखा जा सकता है ....आभार इतनी सुन्दर प्रस्तुति के लिए
सहमी दूब
जवाब देंहटाएंबाँस गुमसुम है
कोंपल डरी-डरी
बूढ़े बरगद की
आँखों में
खामोशी पसरी
बैठा दिए गए
जाने क्यों
गंधों पर पहरे । बहुत सजीव चित्रण आज का. बधाई आपको.
आभार, परमेश्वर फुंकवाल जी
हटाएंआदरणीय व्योम जी,
जवाब देंहटाएंकभी-कभी कोई गीत पाठक को स्वयम आगे बढ़ के बुला लेता है.
हर बार सोचती हूँ नवगीत की पाठशाला में गीत पढ़ा करुँगी पर समय इजाज़त नहीं देता.
पर आज दूसरी बार आपके गीत ने जैसे आवाज़ दे के बुला लिया. पहली बार जब आपने लिखा था, "उड़ गया मधुपान कर कोई मधुप और बरसों कांपता सा रह गया जलजात कोई; सुर्ख़ पत्ते हो गए जल कुम्भियों के , कान में कह कर गया है बात कोई...".
आज शायद इस पीपल के त्रिपटक और चीवर में छुपे संन्यास के अंकन ने बुला लिया या हिरनी के भय की छुईमुई ने.
आपकी आभरी हूँ इस अति सुन्दर, गहरे गीत के लिए. सारे ही बंद सीधे हृदय में पैठने वाले. और सब कितना सहज!
अधिक कुछ कह पाऊं इतना ज्ञान नहीं है , बस नमन !
प्रणाम!...शार्दुला
अनुपम!
जवाब देंहटाएंसघन गंध
फैलाने वाला
व्याकुल है महुआ
त्रिपिटक बाँच रहा
सदियों से
पीपल मौन हुआ
चीवर पाने की
आशा में
कितने युग ठहरे ।
साधुवाद! इन पंक्तियों के लिये
सादर
सघन गंध
जवाब देंहटाएंफैलाने वाला
व्याकुल है महुआ
त्रिपिटक बाँच रहा
सदियों से
पीपल मौन हुआ
चीवर पाने की
आशा में
कितने युग ठहरे ।
अनुपम!
साधुवाद! इन पंक्तियों के लिये।