गर्मी के दिन
ठंडी से
ठिठुर रहे मौसम के पाँव
सूरज ले उषा किरण आया हँस गाँव
नयनों में सपनों ने पायी फिर ठाँव
अपनों की पलकों में
खोज रहे छाँव
महुआ से मदिराए
पनघट के दिन
चुक जाते-थक जाते
गर्मी के दिन
पेड़ों का
कत्ल देख सिसकता पलाश
पर्वत का अंत देख नदी हुई लाश
शहरों में सीमेंटी घर हैं या ताश?
जल-भुनता इंसां
फँस यंत्रों के पाश
होली की लपटें-
चौपालों के दिन
मुरझाते झुलसाते
गर्मी के दिन
संजीव सलिल
जबलपुर
ठंडी से
ठिठुर रहे मौसम के पाँव
सूरज ले उषा किरण आया हँस गाँव
नयनों में सपनों ने पायी फिर ठाँव
अपनों की पलकों में
खोज रहे छाँव
महुआ से मदिराए
पनघट के दिन
चुक जाते-थक जाते
गर्मी के दिन
पेड़ों का
कत्ल देख सिसकता पलाश
पर्वत का अंत देख नदी हुई लाश
शहरों में सीमेंटी घर हैं या ताश?
जल-भुनता इंसां
फँस यंत्रों के पाश
होली की लपटें-
चौपालों के दिन
मुरझाते झुलसाते
गर्मी के दिन
संजीव सलिल
जबलपुर
इस सुंदर नवगीत के लिए सलिल जी को बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंपेड़ों का
जवाब देंहटाएंकत्ल देख सिसकता पलाश
पर्वत का अंत देख नदी हुई लाश
शहरों में सीमेंटी घर हैं या ताश?
जल-भुनता इंसां
फँस यंत्रों के पाश...विकास के नाम पर अपने अतीत को खोते जाने को बहुत सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है आपने. आपको इस सुन्दर नवगीत के लिए बधाई.
सुन्दर नवगीत के लिए शुभकामनाएं .....!
जवाब देंहटाएंधर्मेन्द्र जी, सुरेन्द्र जी उत्साहवर्धन हेतु आभार.
जवाब देंहटाएंआदरणीय संजीव जी,
जवाब देंहटाएंपर्यावरण दूषण की ओर संकेत देता आपका यह नवगीत कितने प्रश्नों को सामने लाता है | क्या धारे धीरे पर्वत, नदियाँ , गाँव पनघट केवल कथा कहानी की बातें रह जायेंगी ? सोच के भय सा लगता है | धन्यवाद आपका |
शशि पाधा