14 जून 2012

१४. कोई चिड़िया नहीं बोलती

ईंट–पत्थरों की जुबान है
ऊँचे बड़े मकानों मे
कोई चिड़िया नहीं बोलती
सूने रोशनदानों में।

कुछ छीटें मेरी यादों के
कुछ धब्बे सबके
धूप–छाँह
हो जाने वाले
रिश्ते हैं अब के,
आँगन वाली गंध नहीं हैं
धूप भरी
दालानों में

आँखों का पानी खोने का
भीतर खेद नहीं
शीशे की खिड़की
के बाहर
उछली गेंद नहीं,
तपता–सा एहसास जेब का
उँगली की
पहचानों में

अनूप अशेष
सतना

5 टिप्‍पणियां:

  1. ' ईंट पत्थरों की जुबान है
    ऊंचे बड़े मकानों में
    कोई चिड़िया नहीं बोलती
    सूने रोशनदानों में '
    ,..भावपूर्ण सुन्दर रचना के लिए बधाई ।

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  2. आ॰ अनूप जी, आपकी इस रचना के साथ मज़ेदार किस्सा जुड़ गया है। यह गीत मैं पहले भी पढ़ चुकी थी,इतना अच्छा लगा था कि इसकी कुछ पंक्तियाँ बार बार दोहराया करती थी। आज फिर देखा तो मन में हलचल मच गई कि फिर से...आखिर किसका गीत है यह?टिप्पणी करना तो भूल गई,गीत की तलाश में जुट गई। चूंकि मेरा पढ़ना सिर्फ "अनुभूति"और इस पाठशाला तक ही सीमित है,पूरी कार्यशालाओं के गीतों पर नज़र घूमा ली। मगर यहाँ नहीं मिला। फिर अनुभूति के पुराने कई अंकों में खोजते हुए ३घंटे की मेहनत के बाद गीत को ढूंढ निकाला। तब तसल्ली हुई कि यह आपका ही गीत है।मेरा तनाव भी खत्म हो गया। सुंदर गीत के लिए आपको हार्दिक बधाई।

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  3. बहुत सुंदर नवगीत है अनूप अशेष जी का, उन्हें पहले भी पढ़ चुका हूँ। अच्छा लिखते हैं। इस प्रस्तुति के लिए नवगीत की पाठशाला को धन्यवाद।

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  4. आँगन वाली गंध नहीं हैं
    धूप भरी
    दालानों में

    वाह.. वाह... क्या बात है...

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  5. एक असहायता,बदलते परिवेश में बदलते रिश्ते और फिर आंगन से धूप की गंध का लुप्त हो जाना ! ईंट - पत्थर की जुबां भी वैसी ही होगी न ?इतनी छोटी रचना में भी बहुत कुछ कह गया यह नवगीत | बहुत बधाई आपको |

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