21 सितंबर 2012

१३. जब से मन की नाव चली

जब से मन की नाव चली, अँगना छूटा
घर गलियाँ भी

पनघट कहाँ,
कहाँ अठखेली, जमघट से बाजार पटे
बटवृक्षों की थाती इतनी, रिश्तों के भ्रमजाल हटे
जब से मन के बाँध बँधे मधुबन छूटा
रँगरलियाँ भी

झगड़े टंटे,
आपाधापी, जैसे पैरों फटी बिवाई
मकड़जाल में फँसी उमरिया, सुख पहुँचा, आँखें पथराई
जब से मन की पीर घटी कसबल छूटा
खलबलियाँ भी

चंदनवन दिन,
केसर रातें, मधुकोष भरी ॠतुएँ देखीं
घर का ना नेह घटा किंचित, बस उमर सदा घटते देखीं
जब से मन आकाश हुआ कथना छूटा,
कनबतियाँ भी

सतरंगी सपने
चाहत के, घर से दूर भगा लाये
सागर ने फैलाई बाहें, मुड़कर क़दम न जा पाये
जब से मन की आँख खुली कल युग छूटा,
अब सदियाँ भी

आकुल
कोटा

10 टिप्‍पणियां:

  1. प्रवाह मय शैली से मन को बांधता रसपूर्ण सुंदर नवगीत। आकुल जी को हार्दिक बधाई।

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  2. सतरंगी सपने चाहत के घर से दूर भगा लाए
    सागर ने फैलाई बांहे
    मुड़कर कदम न जा पाएं
    जबसे मन की आँख खुली कलयुग छूटा
    अब सदियां भी

    बहुत सुन्दर भाव समेटे हुए नवगीतके लिए आकुल जी को बधाई ।

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  3. बहुत बहुत बधाई आकुल जी को इस सुंदर नवगीत के लिए

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  4. उत्तम द्विवेदी23 सितंबर 2012 को 9:07 am बजे

    अच्छे नवगीत के लिए आकुल जी को बधाई।

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  5. विमल कुमार हेड़ा।24 सितंबर 2012 को 7:42 am बजे

    सतरंगी सपने चाहत केए घर से दूर भगा लाये
    सागर ने फैलाई बाहेंए मुड़कर क़दम न जा पाये
    जब से मन की आँख खुली कल युग छूटाएअब सदियाँ भी

    सुंदर रचना के लिये आकुल जी को बहुत बहुत बधाई,
    विमल कुमार हेड़ा।

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  6. जबसे मन की आँख खुली कलयुग छूटा
    अब सदियां भी ....बहुत सुन्दर गीत ...सुन्दर अलग सा मुखडा ....और उसका अंत तक निर्वाह खूबसूरती से .....हार्दिक बधाई आकुल जी ...

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  7. नमस्‍कार
    सभी पाठक साहित्‍यकारों का आभार।

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  8. जब से मन की नाव चली, अँगना छूटा
    घर गलियाँ भी.

    बहुत सार्थक कथन. पाने के बरक्स खोने का दर्दीला एहसास बड़ी संजीदगी से व्यक्त किया गया है. नवगीत की लय भी बहुत प्रवाही है. आकुल जी को बधाई एक सार्थक, सुन्दर नवगीत के लिए.

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  9. जब से मन की नाव चली, अँगना छूटा
    घर गलियाँ भी.

    बहुत सार्थक कथन. पाने के बरक्स खोने का दर्दीला एहसास बड़ी संजीदगी से व्यक्त किया गया है. नवगीत की लय भी बहुत प्रवाही है. आकुल जी को बधाई एक सार्थक, सुन्दर नवगीत के लिए.

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  10. जब से मन की नाव चली, अँगना छूटा
    घर गलियाँ भी.

    बहुत सार्थक कथन. पाने के बरक्स खोने का दर्दीला एहसास बड़ी संजीदगी से व्यक्त किया गया है. नवगीत की लय भी बहुत प्रवाही है. आकुल जी को बधाई एक सार्थक, सुन्दर नवगीत के लिए.

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