इतने ऊंचे उड़े गगन में
पंख कटे सिसकायें
मन की खूंटी टंगे हुए हैं
किसको ये दिखलायें
धमनी-धमनी बिखर गये हम
नस-नस में विष फैले
प्रीत मांगती
भिक्षा डोले
मीरा से मन दहले
सात-समंदर पार बस गये
बँगला पैसा गाड़ी
घर की ड्योढ़ी
रस्ता देखे
कटी हुई हैं नाड़ी
बिना पलस्तर दीवारों में
मन कैसे हुलसायें
लैपटॉप में सिमट रह गया
जन-मानस का प्यार
सूनी अँखियाँ
बेवा जैसे
भूल चलीं त्यौहार
हास खो गया मान खो गया
राख हुई नैतिकता
चिंगारी हर
पल सुलगाये
कहाँ गई मौलिकता
किसको देखें किसे दिखाएँ
खुद मन को बहलायें
वृद्धाश्रम खुल गये कि देखो
अपने हुए बिराने
बूढ़ी अँखियाँ
खोज रही हैं
किसको अपना माने
ये कैसी ऊँचाई जिसने
मन-तन को है बाँटा
ममता बिलख
रही है मन में
अंतर पर है चाँटा
प्रेम बिना निस्सार है जीवन
किसको ये सिखलाएँ
गीता पंडित
दिल्ली
पंख कटे सिसकायें
मन की खूंटी टंगे हुए हैं
किसको ये दिखलायें
धमनी-धमनी बिखर गये हम
नस-नस में विष फैले
प्रीत मांगती
भिक्षा डोले
मीरा से मन दहले
सात-समंदर पार बस गये
बँगला पैसा गाड़ी
घर की ड्योढ़ी
रस्ता देखे
कटी हुई हैं नाड़ी
बिना पलस्तर दीवारों में
मन कैसे हुलसायें
लैपटॉप में सिमट रह गया
जन-मानस का प्यार
सूनी अँखियाँ
बेवा जैसे
भूल चलीं त्यौहार
हास खो गया मान खो गया
राख हुई नैतिकता
चिंगारी हर
पल सुलगाये
कहाँ गई मौलिकता
किसको देखें किसे दिखाएँ
खुद मन को बहलायें
वृद्धाश्रम खुल गये कि देखो
अपने हुए बिराने
बूढ़ी अँखियाँ
खोज रही हैं
किसको अपना माने
ये कैसी ऊँचाई जिसने
मन-तन को है बाँटा
ममता बिलख
रही है मन में
अंतर पर है चाँटा
प्रेम बिना निस्सार है जीवन
किसको ये सिखलाएँ
गीता पंडित
दिल्ली
ये कैसी ऊँचाई जिसने
जवाब देंहटाएंमन-तन को है बाँटा
ममता बिलख
रही है मन में
अंतर पर है चाँटा
प्रेम बिना निस्सार है जीवन
किसको ये सिखलाएँ ... आपके नवगीत में बहुत सारे ज्वलंत प्रश्न हैं, जो इसको सार्थक बनाते हैं. आपको बधाई इस सुन्दर नवगीत के लिए.
हृदय से आभार आपका ..
हटाएंहृदय से आभारी हूँ आपकी ..
हटाएंसीखने की चाह कहाँ शेष
जवाब देंहटाएंसब खुद में विशेष ...
:) पीड़ा का कारण यहीं से आरम्भ होता है और तब लेखनी बोलती है .... आभार रश्मि जी..
हटाएंये कैसी ऊँचाई जिसने
जवाब देंहटाएंमन-तन को है बाँटा
ममता बिलख
रही है मन में
अंतर पर है चाँटा
प्रेम बिना निस्सार है जीवन
किसको ये सिखलाएँ
सूख चुके हैं सारे स्पंदन ……………बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
'ठूँठ हो गये रिश्ते नाते
हटाएंकिस नाते की बात करें '.
बस... आभार आपका वंदना जी .
खुबसूरत गीत ,बधाई
जवाब देंहटाएंआभार मंजुल जी ..
हटाएंबहुत ही बढिया।
जवाब देंहटाएंआभार मित्र सदा जी ..
हटाएंधमनी-धमनी बिखर गये हम
जवाब देंहटाएंनस-नस में विष फैले
प्रीत मांगती
भिक्षा डोले
मीरा से मन दहले
लैपटॉप में सिमट रह गया
जन-मानस का प्यार
सूनी अँखियाँ
बेवा जैसे
भूल चलीं त्यौहार
हर पंक्ति चोट करती हुई .....परम्पराओं के सूनेपन का दुःख ...उपलब्धियों का दर्द आधुनिकता की पेड ...सभी कुछ सफलता से शब्दों में ढला हुआ .......बधाई गीता जी को
हृदय से आभारी हूँ आपकी संध्या जी ..
हटाएंसमसामयिक प्रश्न उठता सुंदर नवगीत | इन प्रश्नों का उत्तर हर किसी के लिए आवश्यक है | उम्दा |
जवाब देंहटाएंमेरी नई पोस्ट:-
करुण पुकार
आभार प्रदीप जी ..
हटाएंबहुत ही सार्थक रचना, सुन्दर नवगीत के लिये बधाई गीता जी.
जवाब देंहटाएंआभार अनिल जी ..
हटाएंये कैसी ऊँचाई जिसने
जवाब देंहटाएंमन-तन को है बाँटा
ममता बिलख
रही है मन में
अंतर पर है चाँटा
प्रेम बिना निस्सार है जीवन
बधाई गीता जी
rachana
बहुत आभार रचना जी ..
हटाएंवृद्धाश्रम खुल गये कि देखो, अपने हुए बिराने
जवाब देंहटाएंबूढ़ी अँखियाँ खोज रही हैं, किसको अपना माने,
बहुत ही मार्मिक पंक्तियाँ बहुत कुछ सोचने पर मजबुर करती है।
अच्छी रचना के लिये गीता जी को बहुत बहुत बधाई
विमल कुमार हेड़ा।
आभार विमल कुमार जी ..
हटाएंशुभ-कामनाएँ
जवाब देंहटाएंगीता जी,
पूरा का पूरा नवगीत रिश्तों में छाई जर्जरता को इंगित करता है |
बधाई |
शशि पाधा जी !
हटाएंआभारी हूँ आपकी
बहुत ही सुंदर नवगीत है गीता जी, बधाई स्वीकार करें।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार धर्मेन्द्र जी..
हटाएंwaah gita jee प्रश्न बहुत गंभीर हैं और उत्तर शायेद किसी के पास नहीं वक्त हि दगा दे जाय इंसान क्या करे गाड़ी बंगला छोड़ के आये तो इस देश मे कहँ जाय क्या खाए ज़िंदगी खुद से सवाल बहुत करती होगी जरुर जवाब से मुहँ चुराते येह गाड़ी बंगला छोड़ के कैसे आते
जवाब देंहटाएंहर जीवन की यही कहानी
हटाएंअलका जी ..
शुभ-कामनाएँ .
waah gita jee bahut badhiya rachna प्रश्न गंभीर उतार मजबूर कौन क्या कह सकता हैं भला
जवाब देंहटाएं:) आभार अलका जी
हटाएंसस्नेह
गीता पंडित
सामयिक बिन्दुओं का सूक्ष्मता से निरीक्षण करता हुआ भावपूर्ण मर्म स्पर्शी गीत। बधाई बहना..!
जवाब देंहटाएंबहुत आभार .
हटाएंशुभ-कामनाएँ
गीता पंडित जी मैं यहाँ की नियमित पाठक नहीं हूँ पर आपके गीत की उत्कृष्टता ने मुझे यहाँ टिप्पणी करने को बाध्य कर दिया ...एक बहुत ही सुंदर सृजन पर दिल से बधाई आपको !!
जवाब देंहटाएंआधुनिक जीवन शैली की आप धापी में हम सब किस तरह अपना भावनात्मक नुक्सान कर रहे हैं उसका बड़ा ही मार्मिक सा चित्रण किया है आपने ।
धमनी-धमनी बिखर गये हम
नस-नस में विष फैले ...बहुत सुंदर पंक्ति !
सूनी अँखियाँ
बेवा जैसे
भूल चलीं त्यौहार....आहा सारा दर्द इन पंक्तियों में बह गया जैसे ..!
हास खो गया मान खो गया
राख हुई नैतिकता
चिंगारी हर
पल सुलगाये
कहाँ गई मौलिकता
किसको देखें किसे दिखाएँ
खुद मन को बहलायें...... सचमुच कभी लगता है कुछ बोलें और कभी लगता कौन सुनेगा किसको सुनाएँ , बेहतर है अब चुप हो जाएँ ...बहुत सुंदर !!
वृद्धाश्रम खुल गये कि देखो
अपने हुए बिराने
बूढ़ी अँखियाँ
खोज रही हैं
किसको अपना माने
ये कैसी ऊँचाई जिसने
मन-तन को है बाँटा
ममता बिलख
रही है मन में
अंतर पर है चाँटा ....आपकी ये पंक्तियाँ सचमुच एक करारा चांटा है खोते हुए मानवीय मूल्यों पर !!
प्रेम बिना निस्सार है जीवन
किसको ये सिखलाएँ ....बस इससे बेहतर इस गीत का अंत कुछ हो ही नहीं सकता था ... हर मर्ज़ की आखिरकार एक ही दवा है प्रेम ..प्रेम और बस केवल प्रेम !!!
एक बार पुनः एक सुंदर , सार्थक , सशक्त और सीखपरक गीत की रचना पर आपको बधाई गीता जी !!!
निशा जी !
हटाएंसबसे पहले तो मैं आपकी इस बात के लियें हृदय से आभारी हूँ कि नियमित पाठिका न होने के बावज़ूद भी आपकी दृष्टि मेरे नवगीत पर पड़ी |
दूसरे आपने पूरे मनोयोग से न केवल उसे पढ़ा अपितु व्याख्या भी की और किया ऐसा विश्लेषण जिसने इस नवगीत मो चार चाँद लगा दिए ... एक बार फिर से बहुत-बहुत आभार आपका...शुभ-कामनायें
मुझे ऐसा लगता है कि यदि एक पाठक भी ऐसा मिल जाये जो रचना को पूरी तरह आत्मसात करे तो लेखनी को उसका सच्चा पुरस्कार मिल जाता है .. :)
सस्नेह
गीता पंडित
समाज में आधुनिकता से पैदा हुई विकृतियोँ को रेखांकित करता सुन्दर गीत ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक बधाई ।