18 दिसंबर 2012

९. समय का पहिया चलता जाये

जीवन का संगीत सुनाये
समय का पहिया चलता जाये

उल्लासों से भरे हुए मन
कुछ करने को उत्साहित मन
उच्छवासों को कोने कर, कुछ
पाने को हैं विचलित मन
प्रतिस्पर्द्धा के मैराथन
जो दौड़े वह मंज़िल पाये

सभी मौसमी दिन पतझड़ से
निष्ठाएँ अब हिलती जड़ से
महँगाई महामारी फैली
आती आवाज़ें बीहड़ से
उसी धुरी पर चलते चलते
वही वक़्त ना फि‍र आ जाये


रिश्तों को अब लज्जित करती
परम्परायें गिरती पड़ती
धर्माचरण लगा बढ़ने तो
क्यों नारी का मान न करती
देख देख छल कपट कहीं अब,
मौन धरा का धैर्य न जाये

पारदर्शिता, सुनवाई
रीकॉल, सूचना का अधिकार
जन-जाग्रति कितनी आई है
समय बतायेगा इस बार
सबको होना होगा इकजुट
अधजल गगरी छलकत जाये

-आकुल, कोटा

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया :)

    मेरी नई कविता आपके इंतज़ार में है: नम मौसम, भीगी जमीं ..

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  2. आकुल जी!

    रिश्तों को अब लज्जित करती
    परम्परायें गिरती पड़ती
    धर्माचरण लगा बढ़ने तो
    क्यों नारी का मान न करती
    मौन धरा का धैर्य न जाये

    सामाजिक विघटन के प्रति आपकी चिंता सर्वतः जायज है.

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    उत्तर
    1. टूटते घर परिवारों में न तो संयम ही रहा है और न ही अपनत्‍व, परिणामस्‍वरूप संस्‍कारविहीन युवावर्ग से हम आशा भी क्‍या करें। मेरे एक नवगीत का एक बंध आपको समर्पित-

      अब तो आब-हवा पतझड़ सी
      मौसम भी दो चार बहें।

      दावानल सी हुई ज़िन्दगी
      बड़वानल सी आशायें
      जठरानल की द्वन्द्व पिपासा
      कहीं कहर ना बरपायें
      रीति रिवाज,परम्पराओं की
      बिखरी बिखरी आज तहें

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  3. कृष्ण नन्दन मौर्य20 दिसंबर 2012 को 7:28 am बजे

    अच्छा नवगीत.

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