लाठी-पुलिस
रबर की गोली
कैसा फागुन कैसी होली
दिन-
दोपहरी में सन्नाटा
शासन की गति सत्यानाशी
बूटों की टापें बस गूँजें
सड़कों के रंग
हुए पलाशी
उड़े गुलाल कहाँ निर्दय ने
आँसू गैस शहर
में घोली
हवालात
में मैदानों के
सहमी सी बैठी आजादी
कहना-सुनना साफ मना है
ध्वनि विस्तारक
करें मुनादी
ढोल-मंजीरा बंद कबीरा
बस अब इंकलाब
की बोली
- ओमप्रकाश तिवारी
रबर की गोली
कैसा फागुन कैसी होली
दिन-
दोपहरी में सन्नाटा
शासन की गति सत्यानाशी
बूटों की टापें बस गूँजें
सड़कों के रंग
हुए पलाशी
उड़े गुलाल कहाँ निर्दय ने
आँसू गैस शहर
में घोली
हवालात
में मैदानों के
सहमी सी बैठी आजादी
कहना-सुनना साफ मना है
ध्वनि विस्तारक
करें मुनादी
ढोल-मंजीरा बंद कबीरा
बस अब इंकलाब
की बोली
- ओमप्रकाश तिवारी
कुव्यवस्था और विडम्बनाओं के इस दौर में पहले की तरह मुक्त ह्रदय से त्यौहारी उमंगों को जीना वाकई दुष्कर है। बढ़िया नवगीत है।
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब
जवाब देंहटाएंहोली को लेकर इंकलाब के स्वर बुलंद करता नवगीत। शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंअन्तर्मन की पीड़ा व्यक्त करता हुआ सामयिक नवगीत,
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर...
लाठी-पुलिस
जवाब देंहटाएंरबर की गोली
कैसा फागुन कैसी होली...गीत की प्रस्तावना ही बहुत कुछ बोल देती है
अंतरों में जो विस्तार मिला है भाव को वो तो अद्भुत है
उड़े गुलाल कहाँ निर्दय ने
आँसू गैस शहर
में घोली
ढोल-मंजीरा बंद कबीरा
बस अब इंकलाब
की बोली.......वाह यथार्थ की बयानी बहुत ही रोचक अंदाज़ में
एक बहुत बढिया गीत के लिए हार्दिक बधाई ओमप्रकाश जी
सामयिक नवगीत के लिए ओमप्रकाश जी को बधाई
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