22 मार्च 2013

१२. अजब गजब रंग

शर्मीले गीत कहीं चुटकीले छंद हैं
मदमाये फागुन के
अजब गजब रंग हैं

बौराये आमों से कैरी मुसकाएँ
टेसू निर्लज्ज खड़े पलकें झपकाएँ
पछुवा की झकझोरें
करती हुड़दंग हैं

अरहर के गुलदस्ते अकड़-अकड़ डोलें
सरसों की फलियाँ भी रुनझुन झुन बोलें
सेमल का रूप निरख
तोते सब दंग हैं

महँगाई जन जन का बजा रही बाजा
राजनीति की बिसात पर बैठे राजा
बूढ़े पीपल शायद
बन गये मलंग हैं

-अनिल कुमार वर्मा

4 टिप्‍पणियां:


  1. शर्मीले गीत कहीं चुटकीले छंद हैं
    मदमाये फागुन के
    अजब गजब रंग हैं... सुंदर मुखड़े के साथ रंग भरा सुंदर नवगीत...
    अनिल जी को हार्दिक बधाई...

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  2. अनिल वर्मा का यह गीत हमें एक ओर ऋतु-प्रसंग से रूबरू करता है तो दूसरी ओर समापन-पद के माध्यम से फिलवक्त की चिंताओं से भी परिचित कराता है। एक अच्छा गीत। अनिल जी को मेरा हार्दिक अभिनन्दन!

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  3. अनिल जी को अच्छे गीत के लिए बधाई ।

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