24 मार्च 2013

१५. फागुन और बयार

ठंडी चले बयार,
गंध में डूबे आँगन द्वार
फागुन आया।

जैसे कोई
थाप चंग पर देकर फगुआ गाए
कोई भीड़ भरे मेले में मिले
और खो जाए
वेसे मन के द्वारे आकर
रूप करे मनुहार
जाने कितनी बार
फागुन आया।

जैसे कोई
किसी बहाने अपने को दुहराए
तन गदराए, मन अकुलाए, कहा न
कुछ भी जाए,
वैसे सूने में हर क्षण ही
मौन करे शृंगार,
रंगों के अंबार
फागुन आया।

-डॉ. तारादत्त निर्विरोध
(विगत १४ मार्च को गीतकार तारादत्त निर्विरोध हमारे बीच नहीं रहे। दिवंगत आत्मा को श्रद्धांजलि स्वरूप इस कार्यशाला को हम उन्हीं की रचना से पूरा कर रहे हैं।)
-टीम नवगीत की पाठशाला

3 टिप्‍पणियां:

  1. तारादत्त निर्विरोध जी के गीत हमेशा उनकी याद दिलाते रहेंगे, वे शरीर से न होते हुये भी हमारे आस पास गीतों में बने रहेंगे, उनकी स्मृतिशेष को उन्हीं के गीत से नमन-
    "जैसे कोई
    थाप चंग पर देकर फगुआ गाए
    कोई भीड़ भरे मेले में मिले
    और खो जाए
    वेसे मन के द्वारे आकर
    रूप करे मनुहार
    जाने कितनी बार
    फागुन आया।"

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