28 मई 2013

7. आँगन वाली छाँह

सिकुड़ गई क्यों
धीरे – धीरे
आँगन वाली छाँव

वो आँगन का नीम,
जो सबका रस्ता तकता था
भरे जेठ में हाँक लगाता
सबको दिखता था
क्यों गुमसुम
जो देता था
सबके हिस्से की छाँव

इक दरवाजा था जिस घर में
चार हुए दरवाजे
सबके अपने अपने उत्सव
अपने बाजे - गाजे
आँगन को
सपनों में दिखते
नन्हें - नन्हें पाँव

धुआँ भरा कितना जहरीला
अब इस घर के अंदर
भीतर से बेहद बदसूरत
बाहर दिखते सुंदर
जबसे बूढ़ा
नीम सिधारा
सूना अपना गाँव

-रोहित रूसिया
(छिंदवाड़ा)

8 टिप्‍पणियां:

  1. रोहित जी को सुंदर नवगीत के लिए बधाई

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  2. अदभुत । मन भीग उठा पढ़कर .. डॉ मोहन नागर

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  5. खूबसूरत नवगीत भाई रूसिया जी। आधुनिकता के आगमन के साथ ही पेड़ पौधों के प्रति हमारी असंवेदनशीलता का अच्छा प्रकटन किया है आपने।
    धुआँ भरा कितना जहरीला
    अब इस घर के अंदर
    भीतर से बेहद बदसूरत
    बाहर दिखते सुंदर
    जबसे बूढ़ा
    नीम सिधारा
    सूना अपना गाँव।

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  6. बहुत सुंदर रोहित जी, हार्दिक बधाई

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