2 जून 2013

१७. नीम-पीपल पुश्तैनी


जहाँ कभी जमती थी
पंचों की खैनी
कहाँ गए, बंधु, नीम-पीपल पुश्तैनी

गये-दिनों गुज़र गई
पुरखों की देहरी
चौखट पर बैठी है
बूढ़ी दोपहरी

पूछे अब कौन
यहाँ गुड़ - चना - चबैनी

गलियों में फिरती हैं
सिरफिरी हवाएँ
इस अँधे सूरज को
किस जगह बिठाएँ

चलती हैं
सभी ओर जब छुरियाँ पैनी

पोखर के आसपास
छल हैं रेतीले
मन्दिर में देवों के
चेहरे हैं पीले

सोच रहे -
कहाँ गई स्वर्ग की नसैनी

–कुमार रवीन्द्र

2 टिप्‍पणियां:

  1. लाजवाब नवगीत। कम से कम शब्दों में सबकुछ कैसे कहा जाय इसका एक अप्रतिम उदाहरण। बहुत बहुत बधाई कुमार रवीन्द्र जी को

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  2. सिद्ध नवगीतकारों के नवगीतों की बात ही कुछ और है. उन्हें पढ़ना और अनुकरण करना एक आनन्ददायक अनुभव है. अनेक स्मृति विम्बों से सज्जित एक अप्रतिम नवगीत. नीम के बहाने हमारी संस्कृति, उससे हमारे दैनिक क्रियाकलाप के जुड़ाव को संदर्भित करते सरोकार आदि को समेटे एक अप्रतिम नवगीतकार.

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