उधर दुआरे भीनी भीनी
महकी चम्पा गन्ध।
इधर देह से लगे खिसकने
सुधियों के मणिबन्ध।
बात नहीं वह
बहुत पुरानी
शैशव में थी
प्रेम कहानी
दोनों याद करें दोनों को
ऐसी कोई विरल निशानी
मीत कहा था तुमने मुझसे
ऐसा करो प्रबन्ध।
आधे-आधे
पैसे जोड़े
हम दोनों ने
गुल्लक फोड़े
चम्पा का बिरवा लाने को
कहाँ कहाँ दौड़े बन घोड़े
रोप एक हरियाला चम्पा
किया नेह अनुबन्ध।
काल कथा में
आया क्षेपक
अलग हुए हम
चल कर दो पग
रहा सींचता और पोसता
प्रणय चिन्ह को अविरल अनथक
पहली बार खिले शाखों में
सित फूलों के छन्द।
रूप तुम्हारा
रंग लुनाई
तुम पर
गया हुआ हरजाई
गूंधे है जूडे में गजरा
हरे पात से भरी कलाई
हाथ झटक कर कहता है यह
छूने पर प्रतिबन्ध।
-रामशंकर वर्मा
लखनऊ
वाह.....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर......
अनु
अपना अमूल्य समय निकाल कर टिपण्णी करने और पसंद करने का आभार अनु जी।
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जवाब देंहटाएंआधे-आधे
पैसे जोड़े
हम दोनों ने
गुल्लक फोड़े
चम्पा का बिरवा लाने को
कहाँ कहाँ दौड़े बन घोड़े
रोप एक हरियाला चम्पा
किया नेह अनुबन्ध।
बहुत प्यारा गीत, रामशंकर जी हार्दिक बधाई
आदरणीय रामानी जी प्रेरणा और उत्साहवर्धन के लिए आभार ह्रदय से।
हटाएंबहुत प्यारा, मधुर गंध से युक्त चम्पई नवगीत के लिये वधाई रामशंकर वर्मा जी
जवाब देंहटाएंआदरणीय व्योम जी आपकी आशीर्वाद स्वरुप प्रशंसा हेतु ह्रदय से आभार। आपकी टिपण्णी मेरे लिए अमूल्य है।
हटाएंआधे-आधे
जवाब देंहटाएंपैसे जोड़े
हम दोनों ने
गुल्लक फोड़े
चम्पा का बिरवा लाने को
कहाँ कहाँ दौड़े बन घोड़े
रोप एक हरियाला चम्पा
किया नेह अनुबन्ध
बहुत सुंदर सत्य और निर्मल। बचपन में वर्षा में उग आते नीम के छोटे छोटे पौधों को लाकर घर के भीतर या बाहर रोपने का निश्छल पर्यावरणीय प्रेम स्वत: हमें पेड़ों की ओर आकर्षित करता रहा है। मैंने स्वयं ऐसा किया है और चम्पा तो मेरे जीवन का एक अभिन्न अंग रहा है। मेरे घर के बाहर के हिस्से में लंबे समय तो उसका साथ मुझे उसके फूलों से नेह निमंत्रण की भाँति आकर्षित करता रहा है। सुंदर रचना के लिए बधाई।
हार्दिक आभार आकुल जी। असल में मैं प्रकृति के बहुत नजदीक रहता हूँ। सरकारी आवास में अभी भी मैंने गुलाब, रजनीगंधा, बेला, लिली, रातरानी, पीला कनेर, एक प्लमेरिया लगा रखा है। दो माह पहले एक हरसिंगार भी लगाया है। इसलिए मेरे गीतों/नवगीतों में चाहे/अनचाहे प्रकृति अवश्मेव घुसपैठ कर लेती है। बस चंपा से ही परिचय नहीं है। पुनश्च आभार आपका।
हटाएंगीत अच्छा है भाई रामशंकर वर्मा का, किन्तु यह नवगीत की बजाय पारम्परिक गीत के कथ्य और कहन के अधिक निकट है| फिर भी एक श्रेष्ठ रोमांस की कविता के रूप यह वरेण्य है| कुछ अंश तो बड़े ही सम्मोहक बन पड़े हैं| मेरा हार्दिक अभिनन्दन भाई रामशंकर को इस अच्छे गीत के लिए|
जवाब देंहटाएंआदरणीय श्रीमन, निस्संदेह आप उन चुनिन्दा नवगीतकारों में हैं जो मेरी प्रेरणा हैं। आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया मुझे अच्छे नवगीत लिखने के लिए उर्जस्वित करती है। इस रचना को पाठशाला में भेजते समय मुझे संकोच हुआ था, मैं चंपा से बिलकुल अनभिज्ञ था, पर चम्पा पर भी लिखना था, सो यह गीत बन गया। आदरणीय पूर्णिमा वर्मन जी से मैंने इस बात का उल्लेख भी किया था। गीत का मर्म उदघाटित करने और आशीष के लिए श्रद्धाविनत आभार।
हटाएंबहुत सुन्दर नवगीत
जवाब देंहटाएंतुम पर
गया हुआ हरजाई
गूंधे है जूडे में गजरा
हरे पात से भरी कलाई
हाथ झटक कर कहता है यह
छूने पर प्रतिबन्ध।
हार्दिक आभार आपका बंधुवर।
हटाएंबहुत सुन्दर नवगीत। हार्दिक बधाई रामशंकर वर्मा जी।
जवाब देंहटाएंटिपण्णी और प्रशंसा के लिए आभार भाई जी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर नवगीत वर्मा जी ...... हार्दिक बधाई आपको सुन्दर अन्तर सुन्दर मुखड़ा ....एक एक शब्द सयोजन बहुत प्यारा सा ,पढ़ते पढ़ते चलचित्र सा नजरो के सम्मुख था , हार्दिक शुभकामनाये
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार शशि जी.
हटाएंआ रामशंकर जी , इस सुन्दर नवगीत के लिए बधाई...आपका रोमांस की और आना बहुत सुखद है...
जवाब देंहटाएंचाह गर मिट गयी होती
जवाब देंहटाएंज़िंदगी फिर न ज़िंदगी होती...
हा-हा-हा. आभार भाई फुंकवालजी.
हार्दिक आभार भाई फुंकवाल जी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर गीत है रामशंकर जी, बधाई स्वीकार करें
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार धर्मेन्द्र जी, प्रेरक टीप के लिए।
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