बीज बिना लग जाती है
डाली चम्पा की।
बिन जाने
पहचाने भा जाता है कोई
अपना सा लगने
लगता है कोई बटोही
खुशबू ने
कब दिया किसी को कोई बुलावा
किसे पता कब कर जायेगा कोई छलावा
शिखर चढ़ा जाती है पाती
अनुकम्पा की।
बौछारों से
हरियाली दिन दूनी बढ़ती
थोड़ी सी खुशहाली
अमरबेल सी चढ़ती
आशाओं के
नीड़ बसाते पंखी रोज
काक बया की करते हैं बदहाली रोज
काल कभी भी बन जाती है
वृष्टि शंपा की।
-आकुल
कोटा
कब दिया किसी को कोई बुलावा
जवाब देंहटाएंकिसे पता कब कर जायेगा कोई छलावा
शिखर चढ़ा जाती है पाती
अनुकम्पा की।..........बहुत सुन्दर गीत आकुल जी ,हार्दिक बधाई आपको
धन्यवाद शशि जी।
हटाएंखूबसूरत भावपूर्ण नवगीत के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुरेन्द्रपालजी।
हटाएंखूबसूरत
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
हटाएं.बहुत सुन्दर गीत
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
हटाएंसुन्दर भाव लिए मधुर प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएंसादर
ज्योत्स्ना शर्मा
आभार
हटाएंअच्छा नवगीत है
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा आपका नवगीत आकुल जी।
जवाब देंहटाएंबिन जाने
जवाब देंहटाएंपहचाने भा जाता है कोई
अपना सा लगने
लगता है कोई बटोही
खुशबू ने
कब दिया किसी को कोई बुलावा ....... बढ़िया गीत