जिसे देख सारे दुख जाते थे भूल
मुरझाये आज वही
चम्पा के फूल
आसमान से बरसा पानी या आग
जो कभी न सोये वह पीर गयी जाग
नाव बही हवा चली
कितनी प्रतिकूल
कान हुये बहरे सुन चीखें–चीत्कार
वज्रपात सहने को विवश हैं पहाड़
मौत ने चुभाये हैं
गहरे से शूल
नंगे आकाश तले भूखा परिवार
अन्तिम उम्मीद रही गगन को निहार
देवदूत उतर पड़ें
दुआ हो कुबूल
– रविशंकर मिश्र रवि
मुरझाये आज वही
चम्पा के फूल
आसमान से बरसा पानी या आग
जो कभी न सोये वह पीर गयी जाग
नाव बही हवा चली
कितनी प्रतिकूल
कान हुये बहरे सुन चीखें–चीत्कार
वज्रपात सहने को विवश हैं पहाड़
मौत ने चुभाये हैं
गहरे से शूल
नंगे आकाश तले भूखा परिवार
अन्तिम उम्मीद रही गगन को निहार
देवदूत उतर पड़ें
दुआ हो कुबूल
– रविशंकर मिश्र रवि
प्रदूषण के प्रति आक्रोश व्यक्त करता सुन्दर नवगीत।
जवाब देंहटाएंहार्दिक बधाई रविशंकर जी...।
naav bahi hava chali kitni pratikool bahut achcha bimb liye likha gaya hai yah geet
जवाब देंहटाएंआदरणीय आपकी यह प्रभावी प्रस्तुति 'निर्झर टाइम्स' संकलन में शामिल की गई है।
जवाब देंहटाएंhttp://nirjhar-times.blogspot.com पर आपका स्वागत् है,कृपया अवलोकन करें।
सादर
बहुत सुंदर रचना सीख देती भी ।
जवाब देंहटाएंअच्छा नवगीत है रविशंकर जी का
जवाब देंहटाएंबढ़िया नवगीत रविशंकर जी। चम्पा के बहाने पर्यावरण संकट से सामना कराता हुआ।
जवाब देंहटाएंbahut badhiya .....bhawpurn ....
जवाब देंहटाएंनंगे आकाश तले भूखा परिवार
जवाब देंहटाएंअन्तिम उम्मीद रही गगन को निहार
देवदूत उतर पड़ें
दुआ हो कुबूल......... समसामयिकता का पुट लिये उम्दा गीत