29 जुलाई 2013

१२. चंपा और चमेली कह दूँ

जीवन की
सूनी गलियों को कैसे रंग रंगीली कह दूँ
नकली फूलों को मैं कैसे चंपा
और चमेली कह दूँ

हर बगिया में
शूल बचे हैं कलियाँ तो सारी कुम्हलाईं
कैसे कह दूँ सब सुन्दर है जब बगिया सारी मुरझाई
बादल, बरसे बिन पानी के कैसी
अजब पहेली कह दूँ

जीवन के
सारे गुण सुन्दर लुप्त हुए हैं देखो तो
भलमानस के सारे किस्से विलुप्त हुए हैं देखो तो
दुष्कर्मो की नई खबर को कैसे
नई नवेली कह दूँ

बालकोनी में
पड़ी कुर्सियाँ पूछ रहीं है आँगन क्या ?
डबल बैड भी पूछ रहा है खटिया और बिछावन क्या?
नकली कालबैल की धुन को, क्या मैना
की बोली कह दूँ

गाँवों वाले
सारे रिश्ते, शहर गए और हो गए सर
रिश्ते केवल बचे नाम के कहाँ खो गए सब आदर
दो बच्चों से भर गए बँगले, कैसे
उन्हें हवेली कह दूँ

-योगेश समदर्शी
गाजियाबाद

4 टिप्‍पणियां:

  1. साधुवाद योगेश जी को इस सुंदर नवगीत हेतु

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  2. चम्पा के बहाने सामयिक विद्रूपताओं को उजागर करता सुन्दर नवगीत आपका।

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  3. नकली कालबैल की धुन को,
    क्या मैना
    की बोली कह दूं
    सभ्यता के बनावटी आवरण की विसंगतियों को रेखांकित करता सुन्दर नवगीत।
    हार्दिक बधाई।

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  4. badal barse bin paani ke kai kaisi ajab pheli kah du....bahut sunar geet hai aaj ke yatharth ko sahi rrop me prastut kiya hai ,badhai

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