बिछड़ गये है सारे अपने
संग-साथ है नहीं यहाँ,
ढूँढ रहा मन पीपल छैंयाँ
ठंडी होती छाँव जहाँ
छोड़ गाँव को, शहर आ गया
अपनी ही मनमानी से,
चकाचौंध में डूब गया था
छला गया, नादानी से
मृगतृष्णा की अंधी गलियाँ
कपट द्वेष का भाव यहाँ
दर्प दिखाती, तेज धूप में
झुलस गये है पाँव यहाँ,
सुबह-साँझ, एकाकी जीवन
पास नहीं है, हमजोली
छूट गए चौपालों के दिन
अपनों की मीठी बोली
भीड़ भरे, इस कठिन शहर में
खुली हवा की बाँह कहाँ
ढूंढ़ रहा मन फिर भी शीतल
पीपल वाली छाँव यहाँ।
- शशि पुरवार
वर्धा
संग-साथ है नहीं यहाँ,
ढूँढ रहा मन पीपल छैंयाँ
ठंडी होती छाँव जहाँ
छोड़ गाँव को, शहर आ गया
अपनी ही मनमानी से,
चकाचौंध में डूब गया था
छला गया, नादानी से
मृगतृष्णा की अंधी गलियाँ
कपट द्वेष का भाव यहाँ
दर्प दिखाती, तेज धूप में
झुलस गये है पाँव यहाँ,
सुबह-साँझ, एकाकी जीवन
पास नहीं है, हमजोली
छूट गए चौपालों के दिन
अपनों की मीठी बोली
भीड़ भरे, इस कठिन शहर में
खुली हवा की बाँह कहाँ
ढूंढ़ रहा मन फिर भी शीतल
पीपल वाली छाँव यहाँ।
- शशि पुरवार
वर्धा
वाह ! बहुत सुंदर ………
जवाब देंहटाएंछोड़ गाँव को, शहर आ गया
अपनी ही मनमानी से,
चकाचौंध में डूब गया था
छला गया, नादानी से
…… बहुत खूब ।
अच्छा नवगीत है शशि जी. विस्थापन ka दंश और gaanv देहात के पेड़ पौधों के साहचर्य से पार्थक्य इन सबको बखूबी उभारा है आपने। बधाई।
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