26 मई 2014

२. गीत कोई पीपल पर लिक्खूँ

गीत कोई पीपल पर लिक्खूँ
ऐसा हुक्म हुआ।
कई दिनों से कलम पढ़ रही
मंतर और दुआ।

कुंद पड़े भावों पर
तन्मयता की सान गढी
चिन्तन किया हाय! पर
बासी उबली नहीँ कढ़ी।
कुंठित मन अब हरियाली पर
रमता नहीँ मुआ।

सुनूँ उसी के मुँह से
उसकी लम्बी काल-कथा
बैठ गया जाकर छाया में
करके व्यक्त व्यथा।
और पितामह! कैसे हो?
कह अंगद चरण छुआ।

गहरी ठंडी साँस
नैन में भरकर गंगाजल
बोला-इमली गूलर पाकड़
आम बेल कटहल।
बंधु बाँधव चले गये
चिलबिल बरगद महुआ।

खाली मशकें लिये पुरंदर
कैसे हो तर्पण
टूटे नीड़ मौन कलरव
शाखों पर संकर्षण।
अँधियारे अब पीपल खाता
न गीदड़ ठलुआ।

- रामशंकर वर्मा
लखनऊ

1 टिप्पणी:


  1. आदरणीय वर्मा जी बहुत प्यारा नवगीत है सुन्दर नवगीत हेतु हार्दिक बधाई

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