रात के सन्नाटे में
ठोकर खाकर गिरा चाँद
ऐसे फैली है धवल चाँदनी
जैसे पिसे हुए गेहूँ की
कई बोरियाँ बिखर गई हों।
ऐसे लगते हैं पीपल के वृक्ष
रात के सन्नाटे में
जैसे मंदिर के बाहर
भिखमंगों की टोलियाँ खडी हों
चुप बैठा है शाखों पर
अपराध बोध से ग्रस्त अँधेरा
जैसे उसके नीले नीले हाथों पर
संटियाँ पड़ी हों
किरच-किरच हो गया वक्त
फिर ऐसे फैल गया राहों पर
जैसे जंगल में बबूल की
कई टहनियाँ बिखर गई हों।
आसमान के उलझे-उलझे बालों में
उँगलियाँ फिरा कर
हवा छरहरी दोनों हाथ उठाकर
अँगड़ाई लेती है
तन्मयता से सुनती और समझती
पत्तों की भाषा को
प्रश्नचिह्न से खडे दरख्तों को
सटीक उत्तर देती है
जलते-बुझते कुछ जुगनू
ऐसा उजास भरते जीवन में
जैसे उगते हुए सूर्य की
कई रश्मियाँ बिखर गई हों।
मैं खिड़की पर खड़ा हुआ
देखा करता हूँ सूनेपन को
सुनता हूँ अनुगूँज
हृदय की घाटी में बीते लम्हों की
आदमकद अतीत आईना लेकर
सम्मुख आ जाता है
हरी दूब की दुर्बलता
पगडण्डी बन जाती यादों की
कुछ क्षण महके चमकीले
ऐसे बिछ गए मेरी पलकों पर
जैसे सागर की रेती पर
कई सीपियाँ बिखर गई हों।
-कुमार शिव
कोटा (राजस्थान)
ठोकर खाकर गिरा चाँद
ऐसे फैली है धवल चाँदनी
जैसे पिसे हुए गेहूँ की
कई बोरियाँ बिखर गई हों।
ऐसे लगते हैं पीपल के वृक्ष
रात के सन्नाटे में
जैसे मंदिर के बाहर
भिखमंगों की टोलियाँ खडी हों
चुप बैठा है शाखों पर
अपराध बोध से ग्रस्त अँधेरा
जैसे उसके नीले नीले हाथों पर
संटियाँ पड़ी हों
किरच-किरच हो गया वक्त
फिर ऐसे फैल गया राहों पर
जैसे जंगल में बबूल की
कई टहनियाँ बिखर गई हों।
आसमान के उलझे-उलझे बालों में
उँगलियाँ फिरा कर
हवा छरहरी दोनों हाथ उठाकर
अँगड़ाई लेती है
तन्मयता से सुनती और समझती
पत्तों की भाषा को
प्रश्नचिह्न से खडे दरख्तों को
सटीक उत्तर देती है
जलते-बुझते कुछ जुगनू
ऐसा उजास भरते जीवन में
जैसे उगते हुए सूर्य की
कई रश्मियाँ बिखर गई हों।
मैं खिड़की पर खड़ा हुआ
देखा करता हूँ सूनेपन को
सुनता हूँ अनुगूँज
हृदय की घाटी में बीते लम्हों की
आदमकद अतीत आईना लेकर
सम्मुख आ जाता है
हरी दूब की दुर्बलता
पगडण्डी बन जाती यादों की
कुछ क्षण महके चमकीले
ऐसे बिछ गए मेरी पलकों पर
जैसे सागर की रेती पर
कई सीपियाँ बिखर गई हों।
-कुमार शिव
कोटा (राजस्थान)
सुंदर गीत
जवाब देंहटाएंसुन्दर नवगीत हेतु हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएं