19 अगस्त 2014

८. कान्हा ओ कान्हा - डॉ. प्रदीप शुक्ल

कान्हा ओ कान्हा
तेरी वंशी हम भूले !!

सुबह शाम गूँज रहीं
कैसी आवाजें
यमुना के कूल खड़े
खिड़की दरवाजे
कदम पेड़ खोज रहे
कहाँ पड़ें झूले !

यमुना में गेंद गिरी
कूदे नंदलाला
लौटे तो पता चला
है गंदा नाला
मर गई यमुना
बात कोई ना कबूले !

खुले आम सड़कों पर
चीर हरण होता
कुर्सी पर यदुवंशी
पड़े पड़े सोता
किसी की मजाल कोई
दुशासन को छू ले !

आज का सुदामा
भीख माँगे चौराहे पर
सखा ने बदल लिया
द्वारका का अपना घर
दुर्योधन, कंस सभी
खूब फले फूले !

- डॉ. प्रदीप शुक्ल

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