9 अगस्त 2009

एक प्रतिक्रिया और उसका उत्तर विस्तार में

इस पत्रोत्तर को विस्तार से इसलिए दिया जा रहा है ताकि अन्य सदस्य भी इससे लाभ उठा सकें और इसके आधार पर अपनी अपनी रचनाओं को नवगीत की दृष्टि से देख सकें। यह पोस्ट आलोचना या समीक्षा नहीं है, बल्कि नवगीत को ठीक से समझने के लिए एक बहस मात्र है। प्रवीण पंडित जी सुप्रसिद्ध कथाकार तो हैं ही कविता, निबंध,गीत और रंगमंच के सिद्ध हस्ताक्षर भी हैं। नवगीत की पूरी टीम उनके प्रति गहरा आदर रखती है। वे नवगीत के क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं, उनके सुखद पदार्पण और विनम्र पत्र का सादर अभिनंदन करते हुए उनके पूछे गए प्रश्नों का हम उत्तर दे रहे हैं। इस आशा से कि अन्य सदस्य भी लाभान्वित होंगे।

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पत्र

जड़मति से सुजान बनने का रास्ता लांघ कर तय करने जैसा नहीं ही होता। अभी तो पहला क़दम ही है , वो भी लटपटाता सा।
लेकिन चलते रहना है-- निरंतर।
आप राह दिखा ही रहे हैं ।
अनुरोध - निम्न पंक्तियां नवगीत की श्रेणी में आती हैं क्या?--कृपया बताएं ।
दरिया मे पानी ,
पानी को खूब रवानी दे।

ओठों पर मुस्कान
थिरकती गाती हो हरदम,
गीतों को दे बोल और
बोलों को मानी दे।
दुल्हन के माथे को
ढ़कती चूनर धानी दे


फ़सल को पक्कापन ऐसे
ज्यों सिद्धि तपसी को
खेतों को दे बीज और
बीजों को पानी दे

दुल्हन के माथे को
ढ़कती चूनर धानी दे
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उत्तर

नमस्ते प्रवीण जी, आप अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित जानेमाने कवि और लेखक हैं। आपकी विनम्रता को और रचना धर्मिता को प्रणाम। सुंदर रचना के लिए बधाई। जो सुझाव दिए जा रहे हैं वे नवगीत की दृष्टि से हैं। उन्हें वैकल्पिक समझकर ही स्वीकारें यानि मनःस्थिति ऐसी रखनी चाहिए कि जो अच्छा लगे वो अपना लो जो बुरा लगे वो जाने दो।

सबसे पहले तो यह गीत है या नवगीत यह संशय मन से निकाल दें। गीत ही अचानक नवगीत हो उठते हैं।
सुझाव इस प्रकार हैं-
अंतरा केवल एक पंक्ति का है इसमें कम से कम एक पंक्ति और जोड़ देना अच्छा रहेगा। देखें-
ओठों पर मुस्कान
थिरकती गाती हो हरदम,
यहाँ ऊपर वाली पंक्ति से मिलती हुई एक पंक्ति और होनी चाहिए उदाहरण के लिए-
जन जन की पीड़ा पर नेह लगाती हो हरदम (या जो आप चाहें)
गीतों को दे बोल
और बोलों को मानी दे।
(इसके बाद की पंक्तियाँ सुंदर है पर मुखड़े से मिलने के लिए दो नई पंक्तियाँ देना गीत के लिए उचित नहीं है। अंतरा हमेशा मुखड़े से बड़ा होना चाहिए। मुखड़ा बार बार दोहराया जाता है इसलिए उसका छोटा रहना गीत में कर्णप्रिय लगता है। इस दृष्टि से मुखड़े से मिलती बाकी दो पंक्तियों की आवश्यकता नहीं है। इसके बाद स्थाई की पंक्तियाँ दोहराई जा सकती हैं।

दूसरे अंतरे में
फ़सल को पक्कापन ऐसे
ज्यों सिद्धि तपसी को
यहाँ कुल मात्राएं तो सही हैं पर कुछ असंतुलन सा है। पहले पद में लघु ज्यादा हैं और दूसरे पद में दीर्घ। मेरे विचार से संतुलन को बनाने के लिए इस प्रकार लिखा जाना बेहतर होगा-
फ़सलों को पक्कापन यों
ज्यों सिद्धि तापसी को
यहाँ एक पंक्ति और जोड़ना ठीक रहेगा -
चौपालों को न्याय कि जैसे
रूप आरसी को
इसके बाद ये पंक्तियाँ जोड़ी जा सकती हैं।
दुल्हन के माथे को
ढकती चूनर धानी दे

खेतों को दे बीज और
बीजों को पानी दे यह पंक्ति बहुत सुंदर है पर इसके बाद पहली पंक्ति या मुखड़ा फिर से आएगा जिसमें पानी देने की बात कही गई है तो शायद दोहराव उचित नहीं रहेगा। मेरे विचार से इसमें नवगीत के तत्त्व उपस्थित हैं। स्थायी की रचना आँचलिकता से मेल खाती है और छंद की दृष्टि से नवीन है। नई उपमाओं का प्रयोग है और प्रस्तुति में नवीनता है। --दरिया में पानी, पानी को खूब रवानी दे-- इस प्रकार एक ही शब्द का दो बार अलग अलग पंक्तियों में प्रयोग बहुत आकर्षक है। एक और विचार भी आ रहा है। अगर यह प्रयोग आगे भी बढ़ता जैसे --गीतों को दे बोल, बोल में गहरा मानी दे-- तो क्या बात होती। इस परिपाटी का प्रयोग दूसरे अंतरे में भी हो जैसे-- बीजों में दे शक्ति, शक्ति से भर गुड़धानी दे... ऐसा कुछ हो सकता तो मज़ा आ जाता। इसी प्रकार के प्रयोग एक गीत को नवगीत बनाते हैं।

इस बातचीत के बाद पूरा तैयार गीत इस प्रकार होगा-

दरिया मे पानी,
पानी को खूब रवानी दे।

ओठों पर मुस्कान
थिरकती गाती हो हरदम,
जन जन की पीड़ा पर
नेह लगाती हो हरदम

गीतों को दे बोल,
बोल में गहरा मानी दे।
दरिया मे पानी,
पानी को खूब रवानी दे।

फ़सलों को पक्कापन यों
ज्यों सिद्धि तापसी को
चौपालों को न्याय कि जैसे
रूप आरसी को

बीजों में दे शक्ति,
शक्ति से भर गुड़-धानी दे
दरिया मे पानी,
पानी को खूब रवानी दे।

सदस्यों की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। --पूर्णिमा वर्मन

11 टिप्‍पणियां:

  1. पूर्णिमा जी,

    नवगीत की पाठशाला का मूल उद्देश्‍य ध्‍यान में रखते हुए आपने अपने पाठकों को जो मार्ग-दर्शन दिया है, चाहे प्रवीण पंडित जी के नवगीत के माध्‍यम से ही, सभी के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध होगा, ऐसी प्रत्‍याशा है । किसी कृति की आलोचना से कृतिकार को लाभ ही मिलता है, ऐसा मेरा विश्‍वास है ।

    पाठशाला अपने मार्ग पर आगे बढ़ती रहे और रचनाओं को यूं ही विस्‍तार मिलता रहे, यही शुभकामनाएं हैं ।

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  2. वाह आपने तो कमाल कर दिया. बहुत बढिया.

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  3. प्रवीण जी का नवगीत ऐसा था जिसकी पांखुरियां बिखर रही थी, आपने उन्‍हें न केवल बांध दिया अपितु उसमें महक भी भर दी। इतना सुन्‍दर नवगीत बन गया है। आशा है इस प्रयोग से हम सभी को बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। आपका आभार, जो हम सबके लिए इतना श्रम कर रही हैं।

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  4. एक दिए गए गीत के आधार पर बहस से बहुत कुछ सीखने को मिला। गीत का विकास कैसे होता है। किस प्रकार मुखड़े और अंतरे की रचना होती है, किस प्रकार उसकी प्रस्तुति में रोचकता और नयापन उत्पन्न किया जाता है यह सीखने को मिला। यहाँ आना सुखद और रोचक लग रहा है।

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  5. आनन्दानुभूति ने सरोपा ऐसा सराबोर कर दिया कि मैं उस अधकच्ची(अधपक्की नहीं ) रचना के काया-कल्प से चकित तो हूं ही, हर्षित भी हूं ।
    सहज-स्पर्श से जीवनदान मिलना इसी को कहते होंगे!
    भाव-विह्वल और आभारी हूं सदगुरु का,जिसने एक अनिर्मित रचना को थपथपाकर अभिनव आकार दे दिया,और नवगीत से वस्तुतः साक्षात्कार करा दिया।
    मेरा कुछ नही है उसमे अब, सब अनुभूति का है।हाँ,अकूत जानकारी को अपनी गाँठ मे बाँध लिये चलता हूं, साधिकार।

    विनत,
    प्रवीण पंडित

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  6. फ़सलों को पक्कापन यों
    ज्यों सिद्धि तापसी को
    चौपालों को न्याय कि जैसे
    रूप आरसी को

    ...मानोशी जी का ता-उम्र शुक्रगुजार रहूँगा, जिनकी बदौलत मैं इस अद्‍भुत पाठशाला से जुड़ पाया।

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  7. पूर्णिमा जी

    एक प्रश्‍न है। आपने जो गीत सहेजकर लिखा है उसमें मात्राओं के बारे में भी मेरा कुछ भ्रम है। जैसे मुखड़े की पंक्तियां है -
    दरिया में पानी
    10

    पानी को खूब रवानी दे 16

    लेकिन प्रथम अन्‍तरे में देखिए -

    गीतों को दे बोल 11

    बोल में गहरा मानी दे 15

    इसी प्रकार अन्‍तरों में भी मात्राओं में अन्‍तर है। कृपया स्‍पष्‍ट करें।

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  8. अजित जी का प्रश्न जायज़ है। यहाँ एक ही पंक्ति के दो हिससे हैं और कुल 26 मात्राएँ हैं। अगर ऐसे लिखें-
    गीतों को दे बोल, बोल में गहरा मानी दे।
    दरिया मे पानी, पानी को खूब रवानी दे।
    तो ठीक मालूम होगा। प्रत्येक खंड की मात्राएँ बराबर हों वह आवश्यक नहीं है। लंबे असंतुलन नहीं होने चाहिए।

    इसी प्रकार अंतरे को भी देखें। कभी कहीं एक मात्रा का कम या ज्यादा होना मायने नहीं रखता अगर नवगीत की लय का बहाव बाधित न हो।
    --पूर्णिमा वर्मन

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  9. बहुत बढिया है .

    धन्यवाद पूर्णिमा जी,
    बहुत सिखने को मिल रहा है

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  10. नवगीत की रचना समझने के लिए
    क्या इससे भी बेहतर
    कोई आलेख हो सकता है?

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  11. बहुत उम्दा जानकारी पूर्णिमा जी ,इससे पहले कभी नवगीत नहीं लिखा था .अबसे जरूर लिखूंगी .सपना मांगलिक

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