ले के बैठी जो सजाने
चीज़ें करीने से लगाने
जाने कितने तितली से दिन
और जुगनु की सी रातें
बिखर गईं ...
ले समेटूँ दौड़ कर वो
सब जो यूँ छितरा पड़ा है
जो सजाने थी चली मैं
काँच की नाज़ुक सी यादें
पाँव में पायल की रुनझुन
मां की गोदी तुतली बातें
छितर गईं...
उलटूँ पलटूँ चाव से मै
पास जो टुकड़ा पड़ा है
नई पुरानी पुस्तकों में
जाने पहचाने से चेहरे
झाँकते शब्दों के माने
कुछ सुरों के साज़ गहरे
बिखर गये...
बाँध दूँ इक तर्ज़ में अब
सब जो कुछ उधड़ा पड़ा है...
कितना कुछ बिखरा पड़ा है...
--मानसी
नई पुरानी पुस्तकों में
जवाब देंहटाएंजाने पहचाने से चेहरे
झाँकते शब्दों के माने
कुछ सुरों के साज़ गहरे
बिखर गये...
बाँध दूँ इक तर्ज़ में अब
सब जो कुछ उधड़ा पड़ा है...
कितना कुछ बिखरा पड़ा है...
सुन्दर गीत बहुत बहुत बधाई, धन्याद
विमल कुमार हेडा
कितना कुछ बिखरा पड़ा है...
जवाब देंहटाएंवाह वाह क्या प्यारा लखिा है आपने
पर आपका नाम प्रकाशित नहीं हो पाया है...
नवगीत की यह कार्यशाला सफल हो रही है.
आगे भी अच्छे गीतों की उम्मीद है.
मीत
मानोशी से हमेशा ही कुछ ज्यादा उम्मीदें होती हैं। वे अच्छे गीत लिखती रही हैं पर इस गीत में कुछ बिखराव है। फिर भी शीर्षक का निर्वाह अच्छी तरह से करने का प्रयत्न दिखाई देता है। बधाई
जवाब देंहटाएंमानोशी अभी कोलकाता से लौटी हैं लेकिन उनका मन अभी वहीं बिखरा पड़ा है। बिना नाम के भी मैं जान गया था कि यह गीत मानोशी का ही है। गीत अच्छा है लेकिन मुक्ता जी की उम्मीद वाली बात से मैं भी सहमत हूँ। फिर भी बधाई!
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