30 दिसंबर 2009

३- तेरी याद सताए

खिले धूप, यदि छटे कुहासा
फिर बगिया लहराए,
देखें जब हरियाली अंखियाँ
रूप तेरा मन आये,
सरदी के इस मौसम में अब
तेरी याद सताए।

होठों पर हैं कम्पन, लेकिन
गीतों के बोल नहीं,
घना कुहासा, व्याकुल मन है
व्याकुलता अनमोल नहीं?
किरणों-की मुस्कान तिहारी
उसको धुंध छिपाए,
सरदी के इस मौसम में अब
तेरी याद सताए।

घने धुन्ध में रूप तुम्हारा
सिमट-सिमट कर आया,
जिसे देख भारी होता मन
थोड़ा सा शरमाया।
सुरभि तुम्हारी तिरे चतुर्दिक्
पवन उसे बतलाए,
सरदी के इस मौसम में अब
तेरी याद सताए।

द्वारे सजी रंगोली रह-रह
मुझसे करे ठिठोली,
बूंद ओस की झूल रही है,
पाती-पाती डोली।
मधुर मिलन की मनोकामना
मन ही मन इठलाए,
सरदी के इस मौसम में अब
तेरी याद सताए।

सूरज को तो गहन लगा है
दिल में बढा अंधेरा,
दोपहरी में मध्य निशा ने
डाल रखा है डेरा ।
तेरा रूप रोशनी माँगे
झलक जो तू दिखाए,
सरदी के इस मौसम में अब
तेरी याद सताए।

--मनोज कुमार

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत-बहुत धन्यवाद
    आपको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।

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  2. शब्द संयोजन और बेहतर भाव-प्रवाह के साथ एक खूबसूरत रचना। बहुत खूब। कोशिश रहेगी कि इस पाठशाला का एक नियमित छात्र बनूँ।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  3. मनोज,जी, 'सूरज को गहन लगा' सुंदर कल्पना है. सरदी के इस मौसम में
    उनकी याद सताए , 'खिले धूप, यदि छटे कुहासा' व मधुर मिलन की मनोकामना स्वाभाविक है.
    बधाई.

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  4. प्रकृति का मानवीकरण बेहद रोचक लगा.

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  5. अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं। बधाई।

    .आप को तथा आपके परिवार को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।

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  6. मनोज जी गीत बढ़िया रहा। लय ताल में है लेकिन नवगीत में जिस नए बिम्ब, नए छंद, नए कथन की अपेक्षा की जाती है वह कमी बनी रही। आशा है निरंतर अभ्यास से दूर हो जाएगी।

    मुक्ता पाठक

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  7. Mukta Pathak,
    Being ANONYMOUS, you should not disclose your identity.

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  8. बहुत सुन्दर पंक्तियाँ हैं, नवगीत में इस तरह के शब्द चित्र उसे अमरत्व प्रदान करते हैं...... वधाई आपको......
    " बूंद ओस की झूल रही है,
    पाती-पाती डोली।"

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  9. मनोज जी,

    मन भावनी परिकल्पना तथा सुन्दर रचना के लिये बधाई स्वीकार करें

    शशि पाधा

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  10. रचना मन को छू गयी... बिम्बों में अछूतापन तथा भाषा में ताताकापन हो तो सोने में सुहागा होगा.

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  11. द्वारे सजी रंगोली रह-रह
    मुझसे करे ठिठोली,
    बूंद ओस की झूल रही है,
    पाती-पाती डोली।

    सुंदर विरहगीत... बधाई..

    दीपिका जोशी'संध्या'

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