15 जनवरी 2010

१४- हिम नदी में कूदकर


हिम नदी में कूदकर मौसम
इन दिनों ज्यों स्नान करता है

हर तरफ है एक कुहरा आवरण
आग ने भी शान्ति सी कर ली वरण
सूर्य खुद मफलर गले में बाँध
शीत का ऐलान करता है

हिम नदी में कूदकर मौसम
इन दिनों ज्यों स्नान करता है

शाम होते ही जगे सोये सपन
ढूँढते हैं शयन शैया में तपन
एक कोने में दुबक दीपक निबल
शीत का गुणगान करता है

हिम नदी में कूदकर मौसम
इन दिनों ज्यों स्नान करता है

--गिरिमोहन गुरु

9 टिप्‍पणियां:

  1. हिम सागर में डूब गया कुछ ऐसे मौसम -
    भक्ति-भावना से ज्यों कोई नहा रहा हो गंगा!
    ऐसे में रच डाला भाई, गीत बहुत ही चंगा!!

    जवाब देंहटाएं
  2. 'सलिल' नत शिर लेखनी ले हाथ
    गिरि गुरु का मान करता है..
    बिम्ब शैली शब्द भाव-प्रवाह
    सत्य अनुपम, गान करता है..

    जवाब देंहटाएं
  3. सूर्य खुद मफलर गले में बाँध
    शीत का ऐलान करता है

    -- वाह क्या बिम्बात्मक कल्पना है |
    बधाई |

    अवनीश तिवारी

    जवाब देंहटाएं
  4. गिरिमोहन गुरु जी के पहले नवगीत की भाँति यह भी इस कार्यशाला की शोभा है। हिमनदी में कूद कर मौसम... बहुत सुंदर मानवीकरण किया है।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत मधुर शब्द बहुत मधुर कल्पना... पाठशाला सार्थक हो रही है।

    जवाब देंहटाएं
  6. शीत का ऐलान करना/ सूर्य का गले में मफलर बंधना/ और मौसम का हिम नदी में स्नान करने की कल्पना
    अति सुंदर कल्पना है. Thank you.

    जवाब देंहटाएं
  7. हिम नदी में कूदकर मौसम
    इन दिनों ज्यों स्नान करता है

    ऐसी कवि की कल्पना के क्या कहने.....
    बढ़िया...

    दीपिका जोशी 'संध्या'

    जवाब देंहटाएं
  8. हिम नदी में कूदकर मौसम
    इन दिनों ज्यों स्नान करता है
    बहुत सुन्दर और सजीव कल्पना है इन पँक्त्तियों में।
    मधुर गीत के लिये धन्यवाद ।

    शशि पाधा

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणियों का हार्दिक स्वागत है। कृपया देवनागरी लिपि का ही प्रयोग करें।