घना घनेरा कोहरा छाया
धरती ढूँढ़न निकली-
धूप
अम्बर-
गलियाँ भूल भूलैयाँ
भूली भटकी फिरती धूप
हिम शिखरों पर शिशिर-हेमन्त
द्वार पाल से आन खड़े
सूरज ने साँकल खटकाई
सुनती घाटी
कान धरे
किरण डोर
से बँध कर आई
थकी-थकी अलसाई धूप
सिमटी सहमी धार नदी की,
शर सा चुभता शीत
थर-थर काँपें ताल तलैया
ठिठुरन से
भयभीत
गर्म दुशाला
ले कर आई
ओढ़ाती, सहलाती धूप
सी-सी सिहरें वन और उपवन
गाँव-गाँव अलाव जले
हीरक कणियाँ झूला बाँधें
हिम कण घुलते
पाँव तले
पीली मेंहदी
घोल के लाई
लीपे आँगन-देहरी धूप
धरती के
घर मिलने आई
धुँधले पथ पर चलती धूप
--शशि पाधा
भूली भटकी फिरती धूप,
जवाब देंहटाएंद्वारपाल से शिशिर-हेमंत,
सूरज का साँकल खटकाना,
कान धरकर घाटी का सुनना,
हीरक कणियों का झूला बाँधना,
पीली मेंहदी से धूप का आँगन-देहरी लीपना!
--
इतने सुंदर बिंब देखकर,
रवि-मन हुआ विभोर,
भोर तक रहा सोचता -
"कोहरा जाए, तो मैं आऊँ,
या फिर मैं आऊँ, यह जाए!"
धरती के
जवाब देंहटाएंघर मिलने आई
धुँधले पथ पर चलती धूप ।
बहुत सुंदर रचना.
धन्यवाद
बेहद पसंद आई।
जवाब देंहटाएंसुंदरम!
जवाब देंहटाएंअब तक
जवाब देंहटाएंरवि के मन
भाती थी
अब शशि के
मन भायी धूप.
रूप अनूप
धूप का भाया,
सुन्दर गीत
मचलती धूप..
*
आचार्य जी की ये पंक्तियाँ
जवाब देंहटाएंयह सिद्ध कर रही हैं कि "नवगीत की पाठशाला" के
सभी नवगीतकार एक-दूसरे को
अपने रंग में रँग रहे हैं!
akya sunder varnan hai
जवाब देंहटाएंman aanandit ho gaya
badhai
saader
rachana
शशि जी क्या वर्णन किया है --
जवाब देंहटाएंद्वार पाल से आन खड़े
सूरज ने साँकल खटकाई
सुनती घाटी
कान धरे
किरण डोर
से बँध कर आई
थकी-थकी अलसाई धूप
और
हिम कण घुलते
पाँव तले
पीली मेंहदी
घोल के लाई
लीपे आँगन-देहरी धूप
रचना पढ़ते -पढ़ते कल्पना में डुबकियाँ लगाने लगी,इतने सुन्दर चित्र उभरे कि अब उसे लिखने के लिए शब्दों की कंगाली महसूस कर रही हूँ ..
बधाई ..बधाई..
'धरती के
जवाब देंहटाएंघर मिलने आई
धुँधले पथ पर चलती धूप'
क्या कहने हैं!----------
आंख मिचौली, लुका छुपी,
लुक-छुप खेल खेलती धूप
आप सब की अमूल्य प्रतिक्रिया के लिये हार्दिक धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसादर,
शशि पाधा
बहुत ही सुन्दर नवगीत शशि पाधा जी का। एक जगह थोड़ी सी लय में शिथिलता आ रही है ।
जवाब देंहटाएंहिम शिखरों पर शिशिर-हेमन्त
द्वार पाल से आन खड़े
के स्थान पर करें
शिशिर और हेमन्त शिखर पर
द्वार पाल से आन खड़े