
धरती लगती दादी
ऊँघ रहा सतपुडा
लपेटे मटमैली खादी
सूर्य अँगारों की सिगडी है
ठण्ड भगा ले भैया
श्वास-आस संग उछल-कूदकर
नाचो ता-ता थैया
तुहिन कणों को हरित दूब
लगती कोमल गादी
कुहरा छाया संबंधों पर
रिश्तों की गरमी पर
हुए कठोर आचरण अपने
कुहरा है नरमी पर
बेशरमी नेताओं ने
पहनी-ओढी-लादी
नैतिकता की गाय काँपती
संयम छत टपके
हार गया श्रम कोशिश कर
कर बार-बार अबके
मूल्यों की ठठरी मरघट तक
ख़ुद ही पहुँचा दी
भावनाओं को कामनाओं ने
हरदम ही कुचला
संयम-पंकज लालसाओं के
पंक-फँसा, फिसला
अपने घर की अपने हाथों
कर दी बर्बादी
बसते-बसते उजड़ी बस्ती
फ़िर-फ़िर बसना है
बस न रहा ख़ुद पर तो
परबस 'सलिल' तरसना है
रसना रस ना ले, लालच ने
लज्जा बिकवा दी
हर 'मावस पश्चात
पूर्णिमा लाती उजियारा
मृतिका दीप काटता तम की
युग-युग से कारा
तिमिर पिया, दीवाली ने
जीवन जय गुंजा दी
-आचार्य संजीव 'सलिल'
अब के तीसरी बार आया दो बार पहले मेरा लेपटाप हेंग हो गया, क्रुप्या चेक करे अपना ब्लांग
जवाब देंहटाएंकविता बहुत सुंदर लगी
'ओढ़ कुहासे की चादर,
जवाब देंहटाएंधरती लगती दादी'
धन्यवाद सलिल जी मधुर रचना के लिये.
आचार्य सलिल जी का निहायत खूबसूरत नवगीत पढकर आनन्द आ गया। लय की नवीनता और नवीन प्रतीकों ने इसे उत्कृष्ट नवगीत बना दिया है। चौथे अन्तरे में एक एक मात्रा बढ जाने से प्रवाह में बहुत ही सूक्ष्म बाधा आ रही है। उसे कुछ इस तरह किया जा सकता है।
जवाब देंहटाएंमनोभावना को इच्छा ने
हरदम ही कुचला
संयम-जलज लालसाओं के
पंक-फँसा, फिसला
aapka geet pada achcha hai.
जवाब देंहटाएंaap ke is nav geet ki ek ek line bahut sunder hai .aap jo bhi likhte hain bahut sunder likhte hain .
जवाब देंहटाएंsaader
rachana
आपका आभार शत-शत.
जवाब देंहटाएंdivyanarmada.blogspot.com