23 जनवरी 2010

२३- ओढ़ कुहासे की चादर

ओढ़ कुहासे की चादर,
धरती लगती दादी
ऊँघ रहा सतपुडा
लपेटे मटमैली खादी

सूर्य अँगारों की सिगडी है
ठण्ड भगा ले भैया
श्वास-आस संग उछल-कूदकर
नाचो ता-ता थैया
तुहिन कणों को हरित दूब
लगती कोमल गादी

कुहरा छाया संबंधों पर
रिश्तों की गरमी पर
हुए कठोर आचरण अपने
कुहरा है नरमी पर
बेशरमी नेताओं ने
पहनी-ओढी-लादी

नैतिकता की गाय काँपती
संयम छत टपके
हार गया श्रम कोशिश कर
कर बार-बार अबके
मूल्यों की ठठरी मरघट तक
ख़ुद ही पहुँचा दी

भावनाओं को कामनाओं ने
हरदम ही कुचला
संयम-पंकज लालसाओं के
पंक-फँसा, फिसला
अपने घर की अपने हाथों
कर दी बर्बादी

बसते-बसते उजड़ी बस्ती
फ़िर-फ़िर बसना है
बस न रहा ख़ुद पर तो
परबस 'सलिल' तरसना है
रसना रस ना ले, लालच ने
लज्जा बिकवा दी

हर 'मावस पश्चात
पूर्णिमा लाती उजियारा
मृतिका दीप काटता तम की
युग-युग से कारा
तिमिर पिया, दीवाली ने
जीवन जय गुंजा दी

-आचार्य संजीव 'सलिल'

6 टिप्‍पणियां:

  1. अब के तीसरी बार आया दो बार पहले मेरा लेपटाप हेंग हो गया, क्रुप्या चेक करे अपना ब्लांग
    कविता बहुत सुंदर लगी

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  2. 'ओढ़ कुहासे की चादर,
    धरती लगती दादी'
    धन्यवाद सलिल जी मधुर रचना के लिये.

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  3. आचार्य सलिल जी का निहायत खूबसूरत नवगीत पढकर आनन्द आ गया। लय की नवीनता और नवीन प्रतीकों ने इसे उत्कृष्ट नवगीत बना दिया है। चौथे अन्तरे में एक एक मात्रा बढ जाने से प्रवाह में बहुत ही सूक्ष्म बाधा आ रही है। उसे कुछ इस तरह किया जा सकता है।
    मनोभावना को इच्छा ने
    हरदम ही कुचला
    संयम-जलज लालसाओं के
    पंक-फँसा, फिसला

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  4. aap ke is nav geet ki ek ek line bahut sunder hai .aap jo bhi likhte hain bahut sunder likhte hain .
    saader
    rachana

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