फूले फूल पलाश कि सपने पर फैलाए रे
फिर मौसम के लाल अधर से
मुस्कानों की झींसी बरसे
आमों के मंजर की खुशबू पवन चुराए रे
पकड़ी के टूसे पतराए
फूल नए टेसू में आए
देवदार-साखू के वन लगते महुआये रे
धरती लगा महावर हुलसी
ठुमक रही चौरे पर तुलसी
हरी घास की हरी चुनरिया सौ बल खाए रे
धूप फसल का तन सहलाए
मन का गोपन भेद बताए
पेड़ों की फुनगी पर तबला हवा बजाए रे
वंशी-मादल के स्वर फूटे
गाँव-शहर के अंतर टूटे
भेद-भाव की शातिर दुनिया इसे न भाए रे।
-नचिकेता
बहुत सुंदर नवगीत, बहुत बहुत बधाई रचनाकार को।
जवाब देंहटाएंअत्यन्त उम्दा
जवाब देंहटाएंधरती लगा महावर हुलसी
जवाब देंहटाएंठुमक रही चौरे पर तुलसी
हरी घास की हरी चुनरिया सौ बल खाए रे
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अद्वितीय!
मन हर्षित करती रचना।
जवाब देंहटाएंधूप फसल का तन सहलाए
जवाब देंहटाएंमन का गोपन भेद बताए
पेड़ों की फुनगी पर तबला हवा बजाए रे
बहुत सुंदर नवगीत
rachana
नचिकेता का नवगीत पाठशाला के लिए सम्मान का विषय है और नये नवगीतकारों के लिये बहुत कुछ ग्हण करने के लिए एक सुनहरा अवसर है। वधाई बहुत अच्छै नवगीत को पाठशाला में भेजने के लिए।
जवाब देंहटाएंभाई नचिकेता जी सुंदर गीत बहुत बहुत बधाई |हम तक पहुँचाने के लिये नवगीत की पाठशाला को बधाई |
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर गीत.
जवाब देंहटाएंफूले फूल पलाश कि सपने पर फैलाए रे
जवाब देंहटाएंफमौसम के लाल अधर
मुस्कानों की झींसी
धरती लगा महावर हुलसी
ठुमक रही चौरे पर तुलसी
हरी घास की हरी चुनरिया सौ बल खाए रे
पेड़ों की फुनगी पर तबला हवा बजाए रे
क्या सुन्दर प्रतीक और बिम्ब प्रस्तुत किया है. अतुलनीय . बधाई.