खून शहर का निसार
सपनों की लाली पर
मनवा क्यों नाच रहा
शीशे की थाली पर
दारू की बोतल में
जिजीविषा हार गई
फड़फड़ है घायल तन
नाजुक मन मार गई
लुटा गई जिस्म यहाँ
भँवरे की गाली पर
’हाँसिल हो’ ये बुखार
जीते हैं मरते हैं
भूतों के अड्डों में
अट्टहास करते हैं
महलों के ख़्वाब चले
जगते हैं ताली पर
निबटाते काम-काज
थक कर यों चूर हुये
सुस्ताते, सोच रहे
घर से क्यों दूर हुये
मछली से आन फँसे
सिक्कों की जाली पर
हरिहर झा
मेलबोर्न आस्ट्रेलिया
भाई हरिहर झा जी बहुत सुन्दर नवगीत लिखा है अपने बधाई |
जवाब देंहटाएंनवगीत के इस सत्र का श्री गणेश एक उत्तम प्रविष्टि से हुआ है
जवाब देंहटाएंमछली से आन फँसे
सिक्कों की जाली पर
यह प्रवासी भारतीयों के साथ निवासी भारतीयों की भी त्रासदी है. विडम्बना है कि हम लोक कल्याणकारी समाजवादी राज्य की राह पर यात्रा आरंभकर अब अघोषित पूंजीवादी पथ पर हैं. बधाई सारगर्भित रचना हेतु.
भाई हरिहर झा जी का यह गीत वर्तमान विसंगतियों और मनुष्य की आज की जिजीविषा की विडंबना का बखूबी विवेचन करती है| इस दृष्टि से यह एक श्रेष्ठ नवगीत है| साधुवाद हरिहर जी को और 'नवगीत पाठशाला' को भी इस नवगीत से शुभारंभ करने हेतु|
जवाब देंहटाएंकुमार रवीन्द्र
बहुत सुंदर नवगीत, कई सारे नए बिंब और प्रतीकों से सजे इस शानदार नवगीत के लिए हरिहर जी को बहुत बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंवाह...वाह...
जवाब देंहटाएंप्रारम्भ ही एक सुंदर नवगीत के साथ हुआ है...
हरिहर झा जी को बधाई
और आभार..
इस सुन्दर गीत हेतु मेरी बधाई स्वीकारें.
जवाब देंहटाएंहरिहर जी बहुत ही उत्तम नव गीत है
जवाब देंहटाएंमछली से आन फँसे
सिक्कों की जाली पर
सुंदर बिम्बों से सजा ये नवगीत बहुत ही उत्तम है
सादर
रचना
सुंदर नवगीत के लिए हार्दिक बधाई
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