जीवन का ये ही अफसाना
राग नया है, साज पुराना
शहरों की गति परिचित सी है,
पथ सारे जाने-पहचाने,
पंख मिले हैं हम सब को पर
भूल गए है पर फैलाना
रिश्तों के सोते सूखे हैं
घर-अपने पीछे छूटे हैं
पैसे की दीमक ने घर में
शुरू किया दीवारें खाना
माँ–बाबूजी अब गाँवों में
बेटे शहरों के बाशिंदे
मोबाइल पर ही होता है
रिश्तों का संवाद निभाना
केशवेन्द्र कुमार
सीतामढ़ी से
राग नया है, साज पुराना
शहरों की गति परिचित सी है,
पथ सारे जाने-पहचाने,
पंख मिले हैं हम सब को पर
भूल गए है पर फैलाना
रिश्तों के सोते सूखे हैं
घर-अपने पीछे छूटे हैं
पैसे की दीमक ने घर में
शुरू किया दीवारें खाना
माँ–बाबूजी अब गाँवों में
बेटे शहरों के बाशिंदे
मोबाइल पर ही होता है
रिश्तों का संवाद निभाना
केशवेन्द्र कुमार
सीतामढ़ी से
साधुवाद भाई केशवेन्द्र कुमार जी को जिनका यह गीत नवगीत की भंगिमा के बहुत नज़दीक है| हालाँकि यह मुकम्मिल नवगीत नहीं बन पाया है, फिर भी कुछ पंक्तियाँ तो अत्यंत सुखद हैं यथा -
जवाब देंहटाएं'पंख मिले हैं हम सब को पर/ भूल गए है पर फैलाना', 'रिश्तों के सोते सूखे हैं','पैसे की दीमक ने घर में/ शुरू किया दीवारें खाना', 'मोबाइल पर ही होता है / रिश्तों का संवाद निभाना'
Nav geet kuch adhuuraa sa hai fir bhi bahut su-ndar manmohk laga naye kalevar me.badhai bhai Keshvendra ko. Prabhudayal
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई केशवेंद्र जी को इस सुंदर नवगीत के लिए
जवाब देंहटाएंमाँ–बाबूजी अब गाँवों में
जवाब देंहटाएंबेटे शहरों के बाशिंदे
मोबाइल पर ही होता है
रिश्तों का संवाद निभाना
सुन्दर पंक्तियाँ, केशवेन्द्र कुमार जी को बहुत बहुत बधाई
धन्वयाद,
विमल कुमार हेडा
आप सबों का शुक्रिया. पूरा नवगीत मूल रूप में आप लोगों के सामने पेश है-
हटाएं"जीवन का ये ही अफसाना |
राग नया है, साज पुराना ||
जीवन की गति परिचित सी है,
पथ सारे जाने-पहचाने,
पंख मिले हैं हम सब को,
पर भूल गए है पर फैलाना |
जीवन का ये ही अफसाना |
राग नया है, साज पुराना ||
रिश्तों के सोते सूखे हैं,
घर-अपने पीछे छूटे हैं ,
पैसे की दीमक ने शुरू किया है,
घर की दीवारों को खाना |
जीवन का ये ही अफसाना |
राग नया है, साज पुराना ||
माँ –बाबूजी अब गाँवों में,
बेटे शहरों के बाशिंदे;
मोबाइल पर ही अब तो
चलता है रिश्तों का निभाना |
जीवन का ये ही अफसाना |
राग नया है, साज पुराना ||
पिज्जा से अब भूख मिटे है
और पेप्सी से प्यास,
शायद बच्चे भूल ना जाये
कैसा होता माँ का खाना |
जीवन का ये ही अफसाना |
राग नया है, साज पुराना ||
फेसबुकी इस दुनिया में अब
मिलना भी आभासी है,
जीने को मुल्तवी करते, करके
‘फुर्सत नहीं है’ का बहाना |
जीवन का ये ही अफसाना |
राग नया है, साज पुराना || "