आओ हम
धूप वृक्ष काटें।
इधर–उधर
हलकापन बाँटे।
अमलतास गहरा कर फूले
हवा नीमगाछों पर झूले
चुप हैं गाँव
नगर, आदमी
हमको तुमको सबको भूले।
हर तरफ़ घिरी–घिरी उदासी
आओ हम
मिल–जुल कर छाँटें।
परछाई आ करके सट गई
एक और गोपनता छँट गई
हल्दी के रंग भरे कटोरे
किरन फिर
इधर–उधर उलट गई।
वह पीलेपन की गहराई
लाल–लाल
हाथों से पाटे।
आओ हम धूप वृक्ष काटें।
—माहेश्वर तिवारी
मुरादाबाद
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंइस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (17-06-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
माहेश्वर जी के इस शानदार नवगीत को पढ़वाने के लिए नवगीत की पाठशाला का आभार
जवाब देंहटाएं'आओ हम धूप-वृक्ष काटें' - वही कालजयी चिर-परिचित पंक्तियाँ - एक बार फिर मन महमह हो गया| साधुवाद 'अनुभूति' परिवार को माहेश्वर भाई के इस नवगीत से नई पीढ़ी को मुखातिब करने के लिए|
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