भोर से ही युग बटोही
ढूँढ़ता है छाँव
धूप गोरी ...!
कहाँ तेरा गाँव
स्वर्ण वर्षी मेघ
हिम संवेदना
कनक अवनी किन्तु
कुत्सित चेतना
प्रगति की प्रचीर पर
कनक मद में पाँव
गगनचुम्बी तुंग से
नील नभ में छेद
यन्त्रचालित युग निहारे
मनुज मन के भेद
शुष्क अंतस झील तट
कैसा बसाया ठाँव
मनुजता को त्याग
वैभव राह पर निकले
प्रकृति को भी छेड़
प्राय: पाँव ही फिसले
भयातुर हो विहग सारे
ढूँढ़ते वट छाँव
उपलब्धियों के गाँव
धूप गोरी ...!
कहाँ तेरा गाँव
-श्रीकान्त मिश्र कान्त
कोलकाता
ढूँढ़ता है छाँव
धूप गोरी ...!
कहाँ तेरा गाँव
स्वर्ण वर्षी मेघ
हिम संवेदना
कनक अवनी किन्तु
कुत्सित चेतना
प्रगति की प्रचीर पर
कनक मद में पाँव
गगनचुम्बी तुंग से
नील नभ में छेद
यन्त्रचालित युग निहारे
मनुज मन के भेद
शुष्क अंतस झील तट
कैसा बसाया ठाँव
मनुजता को त्याग
वैभव राह पर निकले
प्रकृति को भी छेड़
प्राय: पाँव ही फिसले
भयातुर हो विहग सारे
ढूँढ़ते वट छाँव
उपलब्धियों के गाँव
धूप गोरी ...!
कहाँ तेरा गाँव
-श्रीकान्त मिश्र कान्त
कोलकाता
मनुजता को त्याग
जवाब देंहटाएंवैभव राह पर निकले
प्रकृति को भी छेड़
प्राय: पाँव ही फिसले...
धूप गोरी ...!
कहाँ तेरा गाँव...
बहुत सुंदर.
प्रोत्साहन हेतु आपका हार्दिक आभार .. आदरणीय शारदा मोंगा जी ।
हटाएंस्वर्ण वर्षी मेघ, हिम संवेदना
जवाब देंहटाएंकनक अवनी किन्तु, कुत्सित चेतना
प्रगति की प्रचीर पर, कनक मद में पाँव
सुन्दर उपमाओं से भरी यह रचना बढ़िया लगी श्रीकान्त जी को बहुत बहुत बधाई।
विमल कुमार हेड़ा।
प्रोत्साहन हेतु आपका हार्दिक आभार ...
हटाएंस्वर्ण वर्षी मेघ
जवाब देंहटाएंहिम संवेदना
कनक अवनी किन्तु
कुत्सित चेतना
पूरे गीत आरम्भ से अंत तक आपकी छाप छोडता है .....वही विशिष्ट शैली ..वही खजाने से निकले हीरे जैसे शब्द ....और भाव सम्प्रेषण अद्वितीय....हार्दिक बधाई श्रीकांतजी
आपके प्रोत्साहन से सदैव लेखनी को बल मिलता है आ० सन्ध्या सिंह जी .. आभार बहुत छोटा शब्द है।
हटाएंइस सुंदर नवगीत हेतु श्रीकांत जी को बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंरचना को संज्ञान में लेने हेतु आपको हार्दिक धन्यवाद
हटाएंमनुजता को त्याग
जवाब देंहटाएंवैभव राह पर निकले
प्रकृति को भी छेड़
प्राय: पाँव ही फिसले
भयातुर हो विहग सारे
ढूँढ़ते वट छाँव... सच कहा आ श्रीकांत जी, ऐसे ही हैं उपलब्धियों के गाँव....सुन्दर नवगीत के लिए बधाई.
बहुत दिनों बाद आपके प्रोत्साहित करने वाले शब्दों से उत्साह बढ़ा मित्र परमेश्वर फुंकवाल जी.. धन्यवाद
हटाएंबहुत बहुत सुंदर नवगीत। अंत तक मन को बांधता हुआ। बधाई कान्त जी!
जवाब देंहटाएंबड़ी दी आपके स्नेह की सर्वदा ही लालसा रहती है। आशीष बनाये रखें
हटाएंभोर से ही युग बटोही
जवाब देंहटाएंढूँढ़ता है छाँव
धूप गोरी ...!
कहाँ तेरा गाँव.
क्या चमत्कृत करने वाला मुखड़ा है नवगीत का.
प्रगति की प्रचीर पर
कनक मद में पाँव.....
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यन्त्रचालित युग निहारे
मनुज मन के भेद
शुष्क अंतस झील तट
कैसा बसाया ठाँव.
..........
आपका बहुत ही खूबसूरत नवगीत आ० श्रीकांत जी.
आपने गीत पर प्रतिक्रिया देकर उत्साहित किया इसके लिये आपका हार्दिक आभार
हटाएंस्वर्ण वर्षी मेघ
जवाब देंहटाएंहिम संवेदना
कनक अवनी किन्तु
कुत्सित चेतना
प्रगति की प्रचीर पर
कनक मद में पाँव
बहुत ही सुन्दर. खूबसूरत नवगीत के लिये बधाई कान्त जी.
रचना की सराहना हेतु आपका आभार अनिल वर्मा जी !
हटाएंमनुजता को त्याग
जवाब देंहटाएंवैभव राह पर निकले
प्रकृति को भी छेड़
प्रायः पाँव ही फिसले ...
सून्दर भावपूर्ण नवगीत, हार्दिक बधाई ।
गीत की पन्क्तियों को बल देने के लिये .. उत्साह बढ़ाने के लिये आपको नमन सुरेन्द्रपाल वैद्य जी !
हटाएंभोर से ही युग बटोही
जवाब देंहटाएंढूँढ़ता है छाँव
धूप गोरी ...!
कहाँ तेरा गाँव
.... मुखडा ही इतना मनभावन है तो सम्पूर्ण नवगीत की बात ही क्या... भाषा पर आपकी अमिट छाप हमेशा मन मोहती है .. आभार और बधाई आपको ..
प्रिय बहना गीता जी आप भाई को सर्वदा ही प्रोत्साहित करती रहती हैं । आपका यही स्नेह हमारी लेखनी का बल है।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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