मंजिलों के अक्स धुंधले
पाँव नन्हे पथ कड़े थे
इन्द्रधनुष भी था हमारा
और सारी तितलियाँ
समय नदी की रेत से
सृष्टी करती उंगलियाँ
कंक्रीट के जंगलों से
क्या घरोंदे कम बड़े थे
वो महकता माँ का आँचल
गुड़ की डल्ली सिर का काजल
नेह के आँगन ये रीते
और गुम वो जादुई पल
चन्द्र खिलोने के लिए जब
कन्हैय्या जिद पर अड़े थे
ऊँचाइयों के तंग शिखर हैं
काफिले को छोड़ आये
झूठ की तलवार थामी
सच की उंगली छोड़ आये
जीत ली है कितनी दुनिया
खुद से लेकिन कब लड़े थे
आज मुठ्ठी में गगन है
चाहे लहराता चमन है
प्रश्न करते पंख जलते
आबोहवा है या अगन है
सोच में है मन का पंछी
आज हैं या कल बड़े थे?
-परमेश्वर फुँकवाल
लखनऊ
अनेक सवाल पूछता हुआ सुंदर और सार्थक नवगीत। परमेश्वर जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंआपका धन्यवाद आ कल्पना जी, गीत की सराहना कर प्रोत्साहित करने के लिए.
हटाएंसुन्दर नवगीत फूंकवाल जी.
जवाब देंहटाएंमंजिलों के अक्स धुंधले
पाँव नन्हे पथ कड़े थे
इन्द्रधनुष भी था हमारा
और सारी तितलियाँ
समय नदी की रेत से
सृष्टी करती उंगलियाँ
कंक्रीट के जंगलों से
क्या घरोंदे कम बड़े थे.
.............
सोच में है मन का पंछी
आज हैं या कल बड़े थे?
सुन्दर सम्प्रेषण.
गीतफरोश जी, आपकी प्रतिक्रिया बहुत उत्साहित करने वाली है. आपका हार्दिक धन्यवाद.
हटाएंसुन्दर नवगीत फूंकवाल जी.
जवाब देंहटाएंमंजिलों के अक्स धुंधले
पाँव नन्हे पथ कड़े थे
इन्द्रधनुष भी था हमारा
और सारी तितलियाँ
समय नदी की रेत से
सृष्टी करती उंगलियाँ
कंक्रीट के जंगलों से
क्या घरोंदे कम बड़े थे.
.............
सोच में है मन का पंछी
आज हैं या कल बड़े थे?
सुन्दर सम्प्रेषण.
जीत ली है कितनी दुनिया
जवाब देंहटाएंखुद से लेकिन कब लड़े थे....... बहुत सुन्दर गीत है और ये पंक्तियाँ मर्म को छूता हुआ प्रश्न करती है
सोच में है मन का पंछी
आज हैं या कल बड़े थे?........समस्त उपलब्धियों पर एक प्रश्न चिन्ह लगाती पंक्तियाँ ..बहुत ही सुन्दर गीत बन पड़ा है ...हार्दिक बधाई परमेश्वर जी
आ संध्या जी, आपने गीत को पसंद किया और उत्साह बढ़ाया इस हेतु आपका हार्दिक धन्यवाद.
हटाएंआज मुठ्ठी में गगन है
जवाब देंहटाएंचाहे लहराता चमन है
प्रश्न करते पंख जलते
आबोहवा है या अगन है
सोच में है मन का पंछी
आज हैं या कल बड़े थे?
लाजवाब. सुन्दर एवं सार्थक नवगीत के लिये बधाई परमेश्वर जी.
आ अनिल वर्मा जी, गीत आपका ध्यान आकृष्ट कर सका इससे प्रसन्नता है. आपका आभार आपकी अमूल्य प्रतिक्रिया हेतु.
हटाएंआज मुठ्ठी में गगन है
जवाब देंहटाएंचाहे लहराता चमन है
प्रश्न करते पँख जलते
आबोहवा है या अगन है
सोच में है मन का पँछी
आज है या कल बड़े थे ?
वर्तमान मेँ विकसित हो रही विकृत सोच को रेखांकित करता सुन्दर नवगीत । हार्दिक बधाई ।
आ सुरेन्द्रपाल जी, नवगीत को पढ़ने एवं प्रोत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए आपका धन्यवाद.
हटाएंऊँचाइयों के तंग शिखर हैं, काफिले को छोड़ आये
जवाब देंहटाएंझूठ की तलवार थामी, सच की उंगली छोड़ आये
कई प्रश्नों से घिरा यह गीत अच्छा लगा परमेश्वर जी को बहुत बहुत बधाई।
विमल कुमार हेड़ा।
आ विमल कुमार जी, आपको गीत पसंद आया और आपने प्रतिक्रिया हेतु समय निकला इसके लिए आपका हार्दिक आभार.
हटाएंबधाई परमेश्वर जी इस सुंदर नवगीत के लिए
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत धन्यवाद धर्मेन्द्र जी.
हटाएंऊँचाइयों के तंग शिखर हैं
जवाब देंहटाएंकाफिले को छोड़ आये
झूठ की तलवार थामी
सच की उंगली छोड़ आये
जीत ली है कितनी दुनिया
खुद से लेकिन कब लड़े थे
...... हर उपलब्धि की नींव में कितने ही सपने ... अच्छा लगा आपको पढाना ..... शुभ कामनाएँ ..
आ गीता जी, आपकी टीप मन को उर्जस्वित कर गयी. आपका धन्यवाद.
हटाएंइन्द्रधनुष भी था हमारा
जवाब देंहटाएंऔर सारी तितलियाँ
समय नदी की रेत से
सृष्टी करती उंगलियाँ
कंक्रीट के जंगलों से
क्या घरोंदे कम बड़े थे
सुन्दर नवगीत बहुत बधाई
rachana
रचना जी आपका हार्दिक धन्यवाद प्रोत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए .
हटाएंपरमेश्वर जी, एक संवेदनशील अंतर्मन में उठते प्रश्नों को बड़ी ख़ूबसूरती से शब्दों में बांधा है आपने | पूरी की पूरी रचना उत्त्कृष्ट है | बधाई आपको |
जवाब देंहटाएंआ शशी जी, आपका समर्थन रचना को मिला इसके लिए आपका धन्यवाद करता हूँ.
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