30 सितंबर 2012

२१. क्यों हमने घर छोड़ा था

क्यों हमने घर छोड़ा था ?

सुख चादर
में छेद मिले
लहरों लहरों भेद मिले
जेब भरी
मन खाली था
जीवन बना रुदाली था
फिर भी नाता जोड़ा था
क्यों हमने घर छोड़ा था ?

घर में
खुशिया चलती थी
ताख उम्मीदें पलती थी
माथे
अगर पसीना हो
अम्मा पंखा झलती थी
जो था क्या वो थोडा था ?
क्यों हमने घर छोड़ा था ?

सावन
आँगन उतरे
वसंत किवाड़ सजाये
शाम ,
सिंदूरी धूप से
आकर घर रंग जाये
इस दृश्य से मुँह मोड़ा था
क्यों हमने घर छोड़ा था ?

रचना श्रीवास्तव
यू.एस.ए.

20 टिप्‍पणियां:

  1. विमल कुमार हेड़ा।1 अक्तूबर 2012 को 8:11 am बजे

    सावन आँगन उतरे,वसंत किवाड़ सजाये,
    शाम सिंदूरी धूप आकर घर रंग जाये
    इस दृश्य से मुँह मोड़ा था,
    क्यों हमने घर छोड़ा था ?
    अति सुन्दर, रचना जी को बहुत बहुत बधाई।
    विमल कुमार हेड़ा।

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  2. अपनी जड़ोँ से अलग होने का दर्द समेटता हुआ नवगीत ।
    रचना श्रीवास्तव जी को बधाई ।

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  3. आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल २/१०/१२ मंगलवार को चर्चा मंच पर चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आप का स्वागत है

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  4. रचना जी को इस सुंदर नवगीत के लिए साधुवाद

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  5. अत्यंत मार्मिक प्रस्तुति रचनाजी सतशः बधाई।

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  6. अत्यंत मार्मिक प्रस्तुति रचनाजी ,हार्दिक बधाई।

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  7. शाम ,
    सिंदूरी धूप से
    आकर घर रंग जाये
    इस दृश्य से मुँह मोड़ा था
    क्यों हमने घर छोड़ा था ?
    बहुत सुन्दर गीत है .......ह्रदय को छूता हुआ .....बधाई रचना
    जी को

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  8. amma ka pankha jhalta hua boodha haath aankhon ke aage ek chehra aank gaya ! bahut see badhaiyan ! aise hee likhtee raho !!!!!!!!!!!!!!

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  9. परमेश्वर फुंकवाल1 अक्तूबर 2012 को 7:28 pm बजे

    सुन्दर नवगीत के लिए रचना जी को बधाई.

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  10. अपने घर-माहौल से अलग होकर जीने को अभिशप्त प्रवासी मन से उपजे इस गीत की अंतर्धारा एक गहरे अवसाद से मुझे भिगो गई| वस्तुतः हम सभी आज के तथाकथित आधुनिक होते परिवेश में प्रवासी होने की व्यथा को झेल रहे हैं| घर घर नहीं रह गये हैं - वे तो डेरे या रैन-बसेरे हो गये हैं| मन को गहरे स्पर्श करते इस श्रेष्ठ गीत हेतु सुश्री रचना श्रीवास्तव को मेरा हार्दिक साधुवाद!

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  11. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  12. खेद की भावना का सुंदर चित्रण. रचना श्रीवास्तव जी को बधाई।
    परन्तु बादलों की गोद से निकली बूँद की तरह दूसरा पक्ष भी तो सम्भव है.
    कि...
    "आह क्यों घर छोड़ कर मैं यूँ कढ़ी"
    किन्तु ...
    "एक सुंदर सीप का मुख था खुला,
    वह उसमें जा पड़ी मोती बनी.
    लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते,
    जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर,
    किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें,
    बूँद लौं कुछ और ही देता है कर.

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  13. उत्तम द्विवेदी2 अक्तूबर 2012 को 5:42 pm बजे

    अच्छा नवगीत,रचना जी को बधाई।

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  14. मन पीड़ा से भर गया..
    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति रचना जी..

    बधाई ..

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  15. गीत पसंद किया और अपने शब्दों से मुझे आशीष दिया मै बहुत बहुत आभारी हूँ
    बहुत बहुत धन्यवाद
    रचना

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  16. गीत पसंद किया और अपने शब्दों से मुझे आशीष दिया मै बहुत बहुत आभारी हूँ
    बहुत बहुत धन्यवाद
    रचना

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  17. सुख चादर
    में छेद मिले
    लहरों लहरों भेद मिले
    जेब भरी
    मन खाली था
    जीवन बना रुदाली था
    फिर भी नाता जोड़ा था
    क्यों हमने घर छोड़ा था ?
    वाह! रचना, गीत की हर पंक्ति बहुत शक्ति शाली है | बधाई |

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  18. रचना जी के पास बेहद मार्मिक और मासूम से भावों को अनुरंजित करने वाली भाषा है । भाव और भाषा दोनों का समन्वय इस गीत को नई ऊंचाई प्रदान करता है ।

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